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ग़ज़ल
अब न वो मैं न वो तू है न वो माज़ी है 'फ़राज़'
जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें
अहमद फ़राज़
नज़्म
ख़ूब-सूरत मोड़
मुझे भी लोग कहते हैं कि ये जल्वे पराए हैं
मिरे हमराह भी रुस्वाइयाँ हैं मेरे माज़ी की
साहिर लुधियानवी
नज़्म
मुझ से पहले
फिर भी माज़ी का ख़याल आता है गाहे-गाहे
मुद्दतें दर्द की लौ कम तो नहीं कर सकतीं
अहमद फ़राज़
नज़्म
फ़रार
अपने माज़ी के तसव्वुर से हिरासाँ हूँ मैं
अपने गुज़रे हुए अय्याम से नफ़रत है मुझे
साहिर लुधियानवी
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ग़ज़ल
साग़र सिद्दीक़ी
नज़्म
अलाव
मैं ने माज़ी से कई ख़ुश्क सी शाख़ें काटीं
तुम ने भी गुज़रे हुए लम्हों के पत्ते तोड़े
गुलज़ार
ग़ज़ल
जावेद अख़्तर
शेर
माज़ी-ए-मरहूम की नाकामियों का ज़िक्र छोड़
ज़िंदगी की फ़ुर्सत-ए-बाक़ी से कोई काम ले
सीमाब अकबराबादी
नज़्म
आख़िरी ख़त
माज़ी पे नदामत हो तुम्हें या कि मसर्रत
ख़ामोश पड़ा सोएगा वामांदा-ए-उल्फ़त