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ग़ज़ल
हम कि दुख ओढ़ के ख़ल्वत में पड़े रहते हैं
हम ने बाज़ार में ज़ख़्मों की नुमाइश नहीं की
अहमद फ़राज़
नज़्म
सुब्ह-ए-आज़ादी (अगस्त-47)
चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
दयार-ए-हुस्न की बे-सब्र ख़्वाब-गाहों से
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
मय-कदा सुनसान ख़ुम उल्टे पड़े हैं जाम चूर
सर-निगूँ बैठा है साक़ी जो तिरी महफ़िल में है
बिस्मिल अज़ीमाबादी
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नज़्म
एक आरज़ू
हर दर्दमंद दिल को रोना मिरा रुला दे
बेहोश जो पड़े हैं शायद उन्हें जगा दे