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ग़ज़ल
कफ़्श-दोज़ उन के जब अपने ही बराबर बैठें
ऐसी मज्लिस में तो पैज़ार उठे और बैठे
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी
नज़्म
शिकवा
ख़ूगर-ए-पैकर-ए-महसूस थी इंसाँ की नज़र
मानता फिर कोई अन-देखे ख़ुदा को क्यूँकर
अल्लामा इक़बाल
समस्त
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नज़्म
जवाब-ए-शिकवा
चाहते सब हैं कि हों औज-ए-सुरय्या पे मुक़ीम
पहले वैसा कोई पैदा तो करे क़ल्ब-ए-सलीम
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मुझ से पहले
मैं ने माना कि वो बेगाना-ए-पैमान-ए-वफ़ा
खो चुका है जो किसी और की रानाई में