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हास्य
मुझे चक्करों में फँसा दिया मुझे इश्क़ ने तो रुला दिया
मैं तो माँग थी किसी और की मुझे माँगता कोई और है
ज़ियाउल हक़ क़ासमी
ग़ज़ल
जिस ने दिल मेरा दिया दाम-ए-मोहब्बत में फँसा
वो नहीं मालूम मुज को नासेहा क्या चीज़ है
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
एक परी की ज़ुल्फ़ों में यूँ फँसा हुआ है चाँद
हम को लगता है बादल में छुपा हुआ है चाँद
बदीउज़्ज़माँ ख़ावर
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नज़्म
शमा
काबे में बुत-कदे में है यकसाँ तिरी ज़िया
मैं इमतियाज़-ए-दैर-ओ-हिरम में फँसा हुआ