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ग़ज़ल
पुर-ग़ुबारी-ए-जहाँ से नहीं सुध 'मीर' हमें
गर्द इतनी है कि मिट्टी में रुले जाते हैं
मीर तक़ी मीर
नज़्म
वतन का राग
ज़मीन हिन्द की रुत्बा में अर्श-ए-आ'ला है
ये होम-रूल की उम्मीद का उजाला है
चकबस्त बृज नारायण
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कुल्लियात
पुर-ग़ुबारी-ए-जहाँ से नहीं सुध 'मीर' हमें
गर्द इतनी है कि मिट्टी में रुले जाते हैं
मीर तक़ी मीर
कुल्लियात
इस जिस्म-ए-ख़ाकी से हम मिट्टी में अट रहे हैं
यूँ ख़ाक में कहाँ तक कोई रुले हमेशा
मीर तक़ी मीर
नज़्म
वस्ल के बा'द
फिर रुले ख़ाक में शबनम के लरज़ते मोती
यूँ बुझी शमएँ बहारों की कि देखी न गईं
सोहन राही
नज़्म
जवाब-ए-शिकवा
रह गई रस्म-ए-अज़ाँ रूह-ए-बिलाली न रही
फ़ल्सफ़ा रह गया तल्क़ीन-ए-ग़ज़ाली न रही
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मुझ से पहले
शायद अब लौट के आए न तिरी महफ़िल में
और कोई दुख न रुलाये तुझे तन्हाई में
अहमद फ़राज़
नज़्म
एक आरज़ू
हर दर्दमंद दिल को रोना मिरा रुला दे
बेहोश जो पड़े हैं शायद उन्हें जगा दे