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नज़्म
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
सरापा हुस्न-ए-समधन गोया गुलशन की कियारी है
परी भी अब तो बाज़ी हुस्न में समधन से मारी है
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
कल की बात
सामने अम्माँ वहीं खोले पिटारी अपनी
मुँह भरे पान से समधन की इन्हीं बातों पर
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
गुड्डे गुड़िया का ब्याह
शकीला ने सोचा कि शादी रचाएँ
जमीला सहेली को समधन बनाएँ
मोहम्मद शफ़ीउद्दीन नय्यर
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रेख़्ती
समझो मतलब तो ज़रा क्या किया समधन ने मिरी
ता'न की ता'न है ये और अजी बात की बात
मीर यार अली जान
ग़ज़ल
समझें भी दोनों कर रही हैं क्या ये चार पाँच
लौंडी के यार चार हैं बीबी के यार पाँच
शैदा इलाहाबादी
नज़्म
रक़ीब से!
हम ने इस इश्क़ में क्या खोया है क्या सीखा है
जुज़ तिरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ