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नज़्म
एक अलामत
रग-ए-जाँ होगी तो मंटो का क़लम लिक्खेगा
गोपी-नाथ और ज़फ़र-शाह के जैसे किरदार
मुस्तफ़ा ज़ैदी
ग़ज़ल
जो हम पे शब-ए-हिज्र में उस माह-ए-लक़ा के
गुज़रे हैं 'ज़फ़र' रंज-ओ-अलम कह नहीं सकते
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
शाद ओ ख़ुर्रम एक आलम को किया उस ने 'ज़फ़र'
पर सबब क्या है कि है रंजीदा ओ नाशाद तू
बहादुर शाह ज़फ़र
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ग़ज़ल
चश्म ओ दिल बीना है अपने रोज़ ओ शब ऐ मर्दुमाँ
गरचे सोते हैं ब-ज़ाहिर पर हैं बेदारी में हम
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
इस तरह हूँ क़ैदी-ए-हालात 'बिस्मिल' जिस तरह
शेर हो पिंजरे में या शाह-ए-ज़फ़र रंगून में
बिस्मिल सईदी
ग़ज़ल
मौसम तो हर इक शाख़ के खुलने का 'ज़फ़र' था
फिर उन पे कोई बर्ग-ओ-समर क्यूँ नहीं आया
ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र
शेर
'ज़फ़र' बदल के रदीफ़ और तू ग़ज़ल वो सुना
कि जिस का तुझ से हर इक शेर इंतिख़ाब हुआ