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ग़ज़ल
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
आँसू तो बहुत से हैं आँखों में 'जिगर' लेकिन
बंध जाए सो मोती है रह जाए सो दाना है
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
नवा-ए-सुब्ह-गाही ने जिगर ख़ूँ कर दिया मेरा
ख़ुदाया जिस ख़ता की ये सज़ा है वो ख़ता क्या है
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
इसी काएनात में ऐ 'जिगर' कोई इंक़लाब उठेगा फिर
कि बुलंद हो के भी आदमी अभी ख़्वाहिशों का ग़ुलाम है
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
दुनिया के सितम याद न अपनी ही वफ़ा याद
अब मुझ को नहीं कुछ भी मोहब्बत के सिवा याद