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ग़ज़ल
हम भी वहीं मौजूद थे हम से भी सब पूछा किए
हम हँस दिए हम चुप रहे मंज़ूर था पर्दा तिरा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
महफ़िल में तुम अग़्यार को दुज़-दीदा नज़र से
मंज़ूर है पिन्हाँ न रहे राज़ तो देखो
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
तिरी सरकार में लाया हूँ डाली हसरत-ए-दिल की
अजब क्या है मिरा मंज़ूर ये नज़राना हो जाए
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
मेरे बारे में कोई कुछ भी कहे सब मंज़ूर
मुझ को रहती ही नहीं अपनी ख़बर शाम के बाद
कृष्ण बिहारी नूर
ग़ज़ल
जिन के लिए मर मर के जिए हम क्या पाया उन से 'मंज़ूर'
कुछ रुस्वाई कुछ बदनामी हम को मिली सौग़ात के नाम