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ग़ज़ल
कीजे लक़ा-ए-बाख़तर-ए-बे-बक़ा को क़ैद
नजतक के सर पे गुर्ज़-ए-गराँ-बार तोड़िए
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
आ गया गर वस्ल की शब भी कहीं ज़िक्र-ए-फ़िराक़
वो तिरा रो रो के मुझ को भी रुलाना याद है
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
हुए इत्तिफ़ाक़ से गर बहम तो वफ़ा जताने को दम-ब-दम
गिला-ए-मलामत-ए-अक़रिबा तुम्हें याद हो कि न याद हो
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है प कहाँ बचें कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता ग़म-ए-रोज़गार होता
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
हुआ जब ग़म से यूँ बे-हिस तो ग़म क्या सर के कटने का
न होता गर जुदा तन से तो ज़ानू पर धरा होता