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ग़ज़ल
रोता हूँ मैं उन लफ़्ज़ों की क़ब्रों पे कई बार
जो लफ़्ज़ मिरी शोला-बयानी में मरे हैं
एजाज़ तवक्कल
ग़ज़ल
सुना है सूफ़ियों से हम ने अक्सर ख़ानक़ाहों में
कि ये रंगीं-बयानी 'बेदम'-ए-रंगीं-बयाँ तक है