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ग़ज़ल
किसी चश्म-ए-सियह का जब हुआ साबित मैं दीवाना
तो मुझ से सुस्त हाथी की तरह जंगली हिरन बिगड़ा
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो
बशीर बद्र
ग़ज़ल
वो उठे हैं ले के ख़ुम-ओ-सुबू अरे ओ 'शकील' कहाँ है तू
तिरा जाम लेने को बज़्म में कोई और हाथ बढ़ा न दे