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नज़्म
ये रुपहली छाँव ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफ़ी का तसव्वुर जैसे आशिक़ का ख़याल
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
मैं ने मुनइ'म को दिया सरमाया दारी का जुनूँ
कौन कर सकता है इस की आतिश-ए-सोज़ाँ को सर्द
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मैं कि मिरी ग़ज़ल में है आतिश-ए-रफ़्ता का सुराग़
मेरी तमाम सरगुज़िश्त खोए हुओं की जुस्तुजू!
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मिरे अय्याश लम्हों की फ़ुसूँ-गर पुर-जुनूनी के लिए
सद-लज़्ज़त आगीं सद-करिश्मा पुर-ज़बानी थे
जौन एलिया
नज़्म
लाला-ए-अफ़्सुर्दा को आतिश-क़बा करती है ये
बे-ज़बाँ ताइर को सरमस्त-ए-नवा करती है ये
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ज़र्रात का बोसा लेने को सौ बार झुका आकाश यहाँ
ख़ुद आँख से हम ने देखी है बातिल की शिकस्त-ए-फ़ाश यहाँ
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
और दाएँ पहलू में इक मंज़िल का है मकाँ वो ख़ाली है
और बाएँ जानिब इक अय्याश है जिस के हाँ इक दाश्ता है
मीराजी
नज़्म
वो जुनूँ जो आब-ओ-आतिश को असीर कर चुका था
वो ख़ला की वुसअ'तों से भी ख़िराज ले रहा है