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नज़्म
जब ये आलम है तो हम रिश्वत से क्या तौबा करें
तौबा रिश्वत कैसी हम चंदा न लें तो क्या करें
जोश मलीहाबादी
नज़्म
इक लम्बा चौड़ा उजला दस्तर-ख़्वान बिछाया जाएगा
डोंगों का और प्लेटों का इक ढेर लगाया जाएगा
अहमद नदीम क़ासमी
नज़्म
उसे इक ख़ूब-सूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों