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नज़्म
अनवर महमूद खालिद
नज़्म
थी फ़रिश्तों को भी हैरत कि ये आवाज़ है क्या
अर्श वालों पे भी खुलता नहीं ये राज़ है क्या
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
वो माँ कि हाँ से भी होती है बढ़ के जिस की नहीं
दम-ए-इताब जो बनती फ़रिश्ता रहमत का
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
लिखा था अर्श के पाए पे इक इक्सीर का नुस्ख़ा
छुपाते थे फ़रिश्ते जिस को चश्म-ए-रूह-ए-आदम से
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
फ़लक पे वज्द में लाती है जो फ़रिश्तों को
वो शाएरी भी बुलूग़-ए-मिज़ाज-ए-तिफ़्ली है
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
कोई देखे तो है बारीक फ़ितरत का हिजाब इतना
नुमायाँ हैं फ़रिश्तों के तबस्सुम-हा-ए-पिन्हानी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मल्बूस परेशाँ दिल ग़मगीं इफ़्लास के नश्तर खाते हैं
मस्जिद के फ़रिश्ते इंसाँ को इंसान से कमतर पाते हैं
नुशूर वाहिदी
नज़्म
तबाही के फ़रिश्ते जब्र के शैतान हाएल हैं
मगर मैं अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ता ही जाता हूँ
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
हर एक बग़ावत छोड़ी है हर एक शरारत रुख़्सत है
अब घर में फ़रिश्ते आते हैं शैतान ने आना छोड़ दिया
राजा मेहदी अली ख़ाँ
नज़्म
झूम उठते हैं फ़रिश्ते तक तिरे नग़्मात पर
हाँ ये सच है ज़मज़मे तेरे मचाते हैं वो धूम