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नज़्म
अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
ज़िंदगी की ओज-गाहों से उतर आते हैं हम
सोहबत-ए-मादर में तिफ़्ल-ए-सादा रह जाते हैं हम
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मदद करनी हो उस की यार की ढारस बंधाना हो
बहुत देरीना रस्तों पर किसी से मिलने जाना हो
मुनीर नियाज़ी
नज़्म
जिस के बाज़ू की सलाबत पर नज़ाकत का मदार
जिस के कस-बल पर अकड़ता है ग़ुरूर-ए-शहरयार
जोश मलीहाबादी
नज़्म
फिर अर्ज़ की ये मादर-ए-नाशाद के हुज़ूर
मायूस क्यूँ हैं आप अलम का है क्यूँ वफ़ूर
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
अपना कुछ ग़म नहीं है पर ये ख़याल आता है
मादर-ए-हिन्द पे कब से ये ज़वाल आता है
राम प्रसाद बिस्मिल
नज़्म
इक मादर-ए-मुफ़लिस ईद के दिन बच्चों को लिए बहलाती है
सर उन का कभी सहलाती है नर्मी से कभी समझाती है
नुशूर वाहिदी
नज़्म
है तो गोरिस्ताँ मगर ये ख़ाक-ए-गर्दूं-पाया है
आह इक बरगश्ता क़िस्मत क़ौम का सरमाया है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
है मगर आज नज़र में वो बहार-ए-दिल-गीर
कर दिया दिल को फ़रिश्तों ने तरब के तस्ख़ीर
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
मादर-ए-हिन्द के फ़नकार थे मिर्ज़ा 'ग़ालिब'
अपने फ़न में बड़े हुश्यार थे मिर्ज़ा 'ग़ालिब'