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नज़्म
रहीन-ए-गर्दिश भी मरकज़-ए-काएनात भी हूँ
जो मैं ने देखा है वो मिरे ख़ूँ में रच गया है
ज़िया जालंधरी
नज़्म
कल वक़्त-ए-शाम सूरज मलने को मुँह पर उस के
रख कर शफ़क़ के सर पर तश्त-ए-गुलाल आया
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
कानों में रच रही है कोयल की कूक अब तक
'नाज़िर' का है वज़ीफ़ा उस धुन में गुनगुनाना