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नज़्म
तेरे बस में थी अगर मशअ'ल-ए-जज़्बात की लौ
तेरे रुख़्सार में गुलज़ार न भड़का होता
अहमद नदीम क़ासमी
नज़्म
रुख़्सत हुआ वो बाप से ले कर ख़ुदा का नाम
राह-ए-वफ़ा की मंज़िल-ए-अव्वल हुई तमाम
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
वतन से रुख़्सत-ए-'सिद्धार्थ' 'राम' का बन-बास
वफ़ा के ब'अद भी 'सीता' की वो जिला-वतनी
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
वो जब हंगाम-ए-रुख़्सत देखती थी मुझ को मुड़ मुड़ कर
तो ख़ुद फ़ितरत के दिल में महशर-ए-जज़्बात होता था
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
वक़्त-ए-रुख़्सत उन्हें इतना भी न आए कह कर
गोद में आँसू कभी टपके जो रुख़ से बह कर
राम प्रसाद बिस्मिल
नज़्म
सलाम-ए-रुख़्सत-ए-ग़मगीं किए जाता हूँ वादी को
सलाम ऐ वादी-ए-वीराँ जहाँ 'रेहाना' रहती थी
अख़्तर शीरानी
नज़्म
इल्लत-ए-रिश्वत को इस दुनिया से रुख़्सत कीजिए
वर्ना रिश्वत की धड़ल्ले से इजाज़त दीजिए
जोश मलीहाबादी
नज़्म
इफ़्तिख़ार आरिफ़
नज़्म
हर एक बग़ावत छोड़ी है हर एक शरारत रुख़्सत है
अब घर में फ़रिश्ते आते हैं शैतान ने आना छोड़ दिया
राजा मेहदी अली ख़ाँ
नज़्म
इशरतें ख़्वाबीदा रंग-ए-ग़ाज़ा-ए-रुख़सार में
सुर्ख़ होंटों पर तबस्सुम की ज़ियाएँ जिस तरह