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MORE BYजोगिन्दर पॉल

    स्टोरीलाइन

    कहानी निम्न वर्ग के एक किरदार के ज़रिए मुल्क में तेज़ी से उभर रहे मध्यम वर्ग को प्रस्तुत करती है। एक कबाड़ी कोठियों से बनी एक कॉलोनी में रोज़ कूड़ा बीनने आता है। वह कोठियों की उन पिछली गलियों में जाता है जहाँ पर कूड़े के ट्रम रखे होते हैं। वह ट्रम को उलटता है और कूड़े में से अपने काम की चीज़ें चुनकर बाक़ी को वापस उसी ट्रम में भर देता है। ट्रम से निकलने वाली तरह-तरह की चीज़ों को देखते हुए वह उन घरों के पारिवारिक, शारीरिक रिश्तों, कारोबार और सामाजिक नैतिकता की परतें उघाड़ता जाता है।

    लाल पगड़ी वाले ने मुझे रोक लिया है।

    कहाँ जा रहे हो?

    मेरी समझ में नहीं रहा है कि उसे क्या बताऊं।

    जाओ, ख़बरदार, जो इधर उधर आँख उठाई। नाक की सीध में चलते जाओ।

    चलो,छुट्टी हुई। ये लोग नामालूम क्यों मुझे रोक रोक कर ख़बरदार करते रहते हैं। मैं कोई ऐसा वैसा आदमी नहीं हूँ। हमेशा अपनी नाक की सीध में चलता हूँ। कोई किसी तरफ़ भी मुँह करे। चलना तो उसे उसी तरफ़ होता है जिधर उसकी नाक मुँह किये हो। मोटी सी बात है पर ग़रीब बेचारा बोले तो क्या बोले? मैं सर हिला हिला कर गोया लाल पगड़ी वाले को बार-बार सलाम करते हुए नाक की सीध में चल रहा हूँ और शर्मिंदा हूँ कि कुछ करने पर भी पकड़ा गया हूँ।

    ठहरो।

    उसकी आवाज़ पर मेरे पैर चलते चलते मेरी मर्ज़ी या ना मर्ज़ी के बग़ैर एक दम ठहर गए हैं। मैं हूँ क्या, जो अपनी मर्ज़ी से रुकूँ या चलूं?

    उसने तेज़ी से मेरे क़रीब आकर पूछा है। इस झोले में क्या है?

    मैं अपने काम पर निकलता हूँ तो चादर का झोला बना कर दाएं कंधे से लटका लेता हूँ।

    बोलो।

    मैंने घबरा कर झोले को पीठ की तरफ़ फेर लिया है। इतना पर्दा तो बना ही रहना चाहिए कि दिल फूट फूटकर खाल के बाहर आने लगे।

    बोलते क्यों नहीं? झोले में क्या छुपा रखा है?

    लाल पगड़ी वाले ने झपट कर झोले को तेज़ तेज़ टटोला है और फिर मुँह लटका कर गोया हुआ है, ये तो ख़ाली है।

    उसका मुँह ग़ुस्से से फूल कर फटा पुराना फुटबॉल सा बना हुआ है, मन्नु कबाड़िये के पास ले जाऊं तो इस हालत में भी चवन्नी दे ही देगा। ख़ौफ़ज़दा होने के बावजूद मैं शायद मुस्कुरा दिया हूँ।

    हंस क्यों रहे हो, मुझे बेवक़ूफ़ समझते हो?

    मैंने नहीं कहने के लिए बड़े अदब से सर हिलाया है मगर किसी बेवक़ूफ़ को झूट-मूट यक़ीन दिलाया जाये कि वो बेवक़ूफ़ नहीं तो उसे अपनी बेवक़ूफ़ी पर और ग़ुस्सा आने लगता है।

    तुम बदमाशों को मैं ख़ूब जानता हूँ। ख़ाली झोला लटकाए मौक़ा की ताक में घूमते फिरते हो।

    ये बात उसकी झूटी नहीं मगर सभी लोग यही तो करते हैं। हर एक अपने दिल में झोला लटकाए इसी ताक में मारे मारे फिरते रहता है, क्या मालूम कब क्या हाथ जाए?

    भाग जाओ, वर्ना ख़ून पी जाऊँगा।

    मैं ये सोचते हुए आगे हो लिया हूँ कि हज़ार ग़ुस्से के बावजूद जंगली जानवर भी पियें तो पानी ही पीते हैं। फिर आदमी क्यों अपना पारा चढ़ते ही आदमी के लहू का प्यासा हो जाता है...? आज सवेरे की बात है कि खाने के लिए रोटी की पोटली खोल कर मैंने जो ज़रा पीठ मोड़ी तो फ़क़ीरे ने रोटी पर झपटटा मारकर उसे मुँह में ले लिया और भाग निकला... फ़क़ीरा मेरा कुत्ता है जो मेरी गैरहाज़िरी में मेरी झोंपड़ी की रखवाली करता है... उसके पीछे मैंने गालियों की पूरी फ़ौज छोड़ दी मगर वो सबसे बच कर साफ़ निकल गया। बताने मैं ये जा रहा हूँ कि फ़क़ीरे को गालियां बकते हुए मेरी ज़बान दाँतों में आकर कट गई और लहू-लुहान हो गई और... पता नहीं भूक लगी हुई थी या क्या? लहू का ज़ायक़ा मुझे बड़ा अच्छा लगा और में काफ़ी देर अनजाने में अपना लहू बड़े मज़े से हलक़ से उतारता रहा। अपनी ख़ुराक का बंदोबस्त अगर अपने ही बदन से होता रहे तो सारे झंझट से छुटकारा हो जाये...

    अपने ख़्याल की रौ में, मैं यहां कोठियों के आगे सड़क पर आगया हूँ, मेरा यहां क्या काम है? सड़क की दोनों तरफ़ पालिश किए हुए पत्थर की ख़ूबसूरत कोठियाँ हैं और उनके आगे चार एक फुट के बाहरी दीवारों तक पत्थर ही के फ़र्श पर बाग़ीचे लगे हुए हैं जिनके रंग बिरंगे फूलों ने दीवारों से सर उठा कर मेरी तरफ़ देखा है और फिर आपस में सरगोशियाँ करके हँसने लगे हैं।

    मैंने शर्मिंदा हो कर सर झुका लिया है।

    मेरे पैरों के नीचे सड़क इतनी साफ़ है कि इस पर चलते हुए अपना बदन मुझे धब्बा सा लगा है। हाँ, इतने साफ़ सुथरे आस-पास में मेरा क्या काम ? एक मैं ही मैं यहां इस क़दर गंदा मालूम हो रहा हूँ मानो किसी कोठी वाले ने अपना कूड़ा करकट कोठी की पिछली गली की बजाय आगे की तरफ़ फेंक दिया हो। मन्नु कबाड़िये से मैंने कई बार कहा है, कबाड़ कम है तो मुझे भी उस में डाल कर ले लो, पर दाम पूरे दो, मगर मन्नु मुझे साफ़ जवाब देता है, दाम तो चीज़ के होते हैं, तुम किस काम के? सो मैं इन कोठियों की पिछली गलियों में उनके ढेरों गंद में से उसके काम की चीज़ें चुन-चुन कर अपना झोला भरता रहता हूँ।

    मैं पिछली गली में दाख़िल होने के लिए मुड़ गया हूँ और वहां पहुंच कर नथनों में मानूस बू बॉस घुसते ही मुझमें दम पैदा होने लगा है। उन जानी-पहचानी बूओं के धक्कम धक्का में मेरा जी चाहता है कि बे-इख़्तियार हँसता चला जाऊं। पिछले हफ़्ते इसी कैफ़ियत में मेरी हंसी थमने में आरही थी कि एक मुर्ग़ वो हाँ, वही है। वो मुर्ग़ अपनी मुर्ग़ी के पीछे भागते हुए अचानक उछल कर मेरे कंधे पर बैठा और सांस के सारे दर खोल कर बाँग देने लगा। और मुझे लगा कि इस फड़फड़ाती बाँग के परों तले मैं अंडे का अण्डा अपने आप फूट गया हूँ और अंधेरे से बाहर आकर उजाले की जल-थल में नहाने लगा हूँ।

    बाबू कुत्ता भी मेरे पीछे पीछे गली में पहुंचा है। बाबू को उसका नाम मेरा ही दिया हुआ है और कुछ देने को मेरे पास है ही क्या? यहां के नौकरों और कुत्तों को बाबू कह के बुलाता हूँ तो वो बहुत ख़ुश होते हैं। एक-बार चार नंबर वालों के नौकर का मुँह अपने घर वालों की गालियां खा खा के फूला हुआ था कि मैंने बड़े प्यार से उस से कहा, दवाई के दाम हूँ बाबू, तो बीमारी को हंसी-ख़ुशी झेलने से भी आदमी ठीक हो जाता है। वो बेचारा रोने लगा... रोओ नहीं बाबू... बाबू... बाबू... मुझे क्या पता था कि बाबू कुत्ता भी पास ही खड़ा है। उसने मुझे उसका नाम उस लौंडे के हवाले करते हुए पाया तो ग़ुस्से में छलांग लगा कर निर्दोश की पिंडली को अपने दाँतों में ले लिया। बाबू जहां भी हो मेरे यहां पहुंचते ही बू पाकर दुम हिलाते हुए चला आता है।

    मुझे अपनी तरफ़ मुतवज्जा ना पाकर वो अपने बंद मुँह से गुर्राया है।

    हाँ, हाँ, देख लिया है बाबू, कहो कैसे हो?

    मैंने उस की तरफ़ सर उठाया है और उसके मुँह में एक सालिम डबल रोटी देखकर मेरा पेट ख़ाली ढोल की तरह थई थई बजने लगा है... आओ।

    मैं गली के बीच में ही बैठ गया हूँ और उसने मुँह खोल कर डबल रोटी मेरे आगे मिट्टी में गिरा दी है।

    बेवक़ूफ़, मिट्टी में क्यों गिरा दी है? खाने वाली चीज़ों को तो आँखों में उठा रखते हैं।

    मैंने डबल रोटी से मिट्टी झाड़कर आधी उसके आगे डाल दी है और आधी पर अपना मुँह मारते हुए मुझे याद आया है कि आज मैंने छोटू के हाथ फ़क़ीरे को रोटी भेजी थी। भूका आदमी है उसने आप ही खा ली होगी। मैं हँसने लगा हूँ, ख़ाली पेट में डबल रोटी उतरने से या अपने इस ख़याल पर, कि जिसे हम कुत्ता कहते हैं उसकी तो भूक से जान निकल रही होती है मगर हम ये चाहते हैं कि वो आदमियों की तरह पिछली दो टांगों पर खड़ा हो जाए और अगली को हाथों की तरह बांध कर हम से अपनी उजरत की भीक मांगता रहे। मैंने गोया फ़क़ीरे को प्यार करने के लिए बाबू की पीठ पर हाथ फेरा है और उस बेज़बान ने भोंक कर मुझसे पूछा है, और लाऊं?

    मुझे मालूम है कि बाहरी सड़क पर जब वो चिड़चिड़ा और बूढ्ढा हलवाई गद्दी पर बैठे ऊँघने लगता है तो बाबू मौक़ा पाते ही उसके थालों से कुछ कुछ उचक लेता है। बूढ्ढा बेचारा हर चीज़ गिनती से रखता होगा मगर उसके कम पड़ जाने पर अपने बूढ़े हाफ़िज़े और जवान बेटे को कोसता होगा। हराम की औलाद आवारागर्दी करता फिरता है। सारा काम सँभाल ले तो मैं क्यों हड्डीयों को कूट कूट कर लड्डू बनाता रहूं। तीन चार दिन पहले मेरी जेब पैसों से भरी हुई थी। मैंने बाबू से कहा, आओ आज बुड्ढे को पैसे देकर खाते हैं। बाबू मेरे आगे आगे गोया सूट बूट पहन कर हो लिया और बुड्ढे की दुकान पर उसने बड़ी शान से भोंक लगाई, दो डबल रोटियाँ दो, जल्दी!

    बाबू ने फिर से पूछा है, बस, या और लाऊं?

    नहीं, इतनी ही बहुत है, आओ, अब अपना काम करें।

    सबसे पहले मैं कूड़े के ड्रम को उलट देता हूँ और बाबू मेरी सहूलत के लिए पंजे मार कर कूड़े को ख़ूब फैला देता है और फिर मैं अपने मतलब की चीज़ें चुन कर कूड़ा इकट्ठा कर के वैसे ही ड्रम में डाल देता हूँ।

    हर कोठी का ड्रम उलटते हैं उन लोगों की सारी गंदगी मेरी आँखों में आजाती है। ख़ुदा बचाए मेरा धंदा ही यही है। मुझे मालूम है औरों की गंदगी खुजियारना अच्छा काम नहीं, गंद ढंपा ढंपा रहे तो रोग ही फैलते हैं मगर क्या करूँ? उनके कूड़े के ढकने खोलता रहूं तो भूकों मरूँ।

    आओ...! मैंने तीन नंबर वालों का ड्रम उलट कर बाबू से कहा है। मुझे पहले ही से पता है कि इस ड्रम से रद्दी काग़ज़, शराब के ख़ाली अद्धे औरपव्वे और सिगरेट के बे हिसाब टुकड़े निकलेंगे। मन्नु कबाड़िया कहता है कि अख़बार का काग़ज़ लाया करो। कहाँ से ले जाऊं अख़बार का काग़ज़? घर वाले को ख़बरों की टोह भी तो हो। उसे तो इतना भी इल्म नहीं कि उसके घर में क्या हो रहा है। प्रोफ़ेसर साहिब जब रात-दिन अपनी अल्लम ग़ल्लम सोचों से कोरे-काग़ज़ काले कर कर के रद्दी की टोकरी भर रहे होते हैं तो साथ के कमरे में ही उनकी बीवी जवान नौकर को गर्मा रही होती है। सबसे पहले मैं ख़ाली बोतलों को उठा कर झोले में डालने लगा हूँ, क्या मजाल, किसी बोतल में शराब की एक बूँद भी बाक़ी हो। साला नौकर बोतल में रही सही को भी पानी में घोल कर ग़ट ग़ट चढ़ा जाता है। नहीं तो इतनी बोतलों में से बूँद बूँद भी जमा कर लिया करूँ तो हफ़्ते में एक-बार तो मेरा जलसा हो ही जाया करे। हाँ, उस दिन मुझे इस ड्रम से एक पूरा अध खुलाअद्धा मिल गया था। अनजाने में फेंक दिया होगा वर्ना उस माँ के यार के हत्थे चढ़ जाती तो उसे क्या अपने बाप के लिए यहां डाल जाता? मैं उसी दम काम धंदा छोड़ के ख़ुशी से हाँपते हुए सीधा अपनी झोंपड़ी में चला आया और ख़ाली पेट बोतल ख़ाली कर के सारा दिन और सारी रात फ़र्श पर औंधा पड़ा रहा। फ़क़ीरा ग़ुस्से से गुर्रा गुर्रा कर मेरा बदन किटकिटाता रहा मगर नशे में मुझे यही लगता रहा कि मेरे नसीब खुल गए हैं और दूधिया चाम से लदी हुई घरवाली सच-मुच कहीं से मेरे साथ बसने को आगई है और मेरे बदन को चूम चाट कर मेरी जन्म जन्म की थकान चूसे जा रही है। दूसरे दिन मेरी आँख खुली तो फ़क़ीरे ने मुझे दिल खोल कर सुनाईं। मैं पहले तो उसे शर्मिंदगी से सुनता रहा फिर सर ऊपर उठाए बग़ैर उससे कहा, अब छोड़ो भी बाप मोरे, जो हो गया सो हो गया... प्रोफ़ेसर की रद्दी सोचों का पुलंदा बाँधते हुए मैंने अपने आपको बताया है कि इतना बोझल हो गया है पर मन्नु तो दस पैसे क़ीमत लगाने पर भी राज़ी होगा। अब मैंने सिगरेट के टुकड़ों पर आँखें लगा ली हैं। इतने छोटे छोटे टुकड़े हैं कि जब तक उंगलियां जलती होंगी, अपने इर्दगिर्द धुंए के ग़ुबार गहरे करता जाता होगा। अरे भई, कुछ सोचना ही है तो बाहर आके सीधा सीधा देख के सोचो, जिसके लिए सोचें बनी हुई हैं, ये क्या कि अपनी सोचों के बारे में ही सोचते चले जाओ। मैंने दो-चार सिगरेट के ज़रा बड़े टुकड़े चुन कर जेब में रख लिये हैं। एक एक दो दो कश तो निकल ही आएँगे...अरे बस... मैंने बाबू से कहा है और मलबे को वापस ड्रम में डालने के लिए इकट्ठा करने लगा हूँ।

    अभी तक मैं यही समझ रहा था कि मैं आप ही अपने दिमाग़ में बोले जा रहा हूँ, दरअसल हो ये रहा है कि कोई मेंढ़क अगले घर की ढंपी हुई नाली की सड़ान्ड में फुदकते हुए बे-तहाशा टरटर किए जा रहा है इतने में मेरे देखते ही देखते एक साँप कहीं से साएँ साएँ वारिद हो कर उस के पीछे नाली में जा घुसा है।

    क्यों भोंक रहे हो बाबू? मेंढ़क को जान प्यारी है तो जो देखता है उसे चुपचाप देखता रहे। देखकर टरटर क्यों करने लगता है? एक बात याद रखो बाबू। ये सारी दीवारें इसलिए हिफ़ाज़त से खड़ी हैं कि कुछ भी हो जाये सदा चुप रहती हैं। बोलने लगें तो उसी दम ढय् जाएं। अच्छा, ये बताओ इस घर की औरत रात को इतनी देर से कहाँ से आती है? जिनके साथ आती है उनकी गाड़ी ज़रा फ़ासले पर रुकवा लेती है और बिल्ली की तरह पंजों पर चलती हुई पिछवाड़े से अपने घर में दाख़िल हो जाती है। नहीं, मूर्ख, उसके शौहर को सब कुछ मालूम है। वही तो उसकी गैरहाज़िरी में बच्चों को सँभालता सुलाता है। जब वो लौटती है तो दरवाज़ा खोलते ही वो उसका वो हाथ अंदर खींच लेता है जिस पर उसका हवा लटक रहा होता है। इतनी देर तक राह तकने के बाद अब कहीं बेचारे की बारी आती है कि बीवी के साथ सोए। नहीं, चुप, हमें क्या लेना देना है? क्लर्क आदमी है तो क्या? कितनी आन-बान से रहता है। हाँ, दफ़्तर की तनख़्वाह पर तो गुज़र बसर भी हो। जो करता है ठीक ही करता है। इतनी शानदार कोठी में रहता है और अपना सारा कूड़ा रोज़ के रोज़ साफ़ करके बाहर फेंक देता है। हाँ, तुम ठीक ही कहते हो भाई, इस से तो अच्छा है कि राल टपका टपका कर औरों का कूड़ा फ़ोड़ता रहे।

    इस कोठी का ड्रम अक्सर ख़ाली ही होता है क्योंकि ये लोग अपने पिछवाड़े का भी आगा साफ़ दिखाने के लिए अपनी गंदगी आस-पास वालों के ड्रमों में डाल देते हैं। मैं इस ड्रम को खोले बग़ैर आगे बढ़ जाता हूँ मगर फिर ख़याल आता है कि एक नज़र देख ही लूं, ड्रम में बालों के एक सुनहरी क्लिप ने मुझे देखकर आँख मारी है, शायद सोने का है। मैंने तेज़ी से उसे हाथ में ले लिया है। नहीं ताँबे का होगा। मुझे सोने की पहचान है, ताँबे की। मन्नु कबाड़िया तो खरा सोना भी ले तो ताँबे की दाम पर ही ले। मैंने क्लिप को अपनी जेब में डाल लिया है और सोचने लगा हूँ कि रुलदू की जोरू के बालों में इस की सज-धज कैसे लगेगी। अगर सोने का है तो एक नहीं, दस बार सौदा पक्का कर के दूँगा। मेरे क़रीब ही एक झोंपड़ी में रुलदू भी अपनी जोरू से पेशा करवाता है। मगर उसकी ये ख़ूबी है कि वो खुले खुले सब कुछ करता है। अरे भाई, एक दिन वो मुझे बता रहा था, जब मुझे शक होने लगा कि मेरी औरत के लच्छन ठीक नहीं तो मैं उसे वेश्या समझ कर ही उससे पेश आने लगा। किसी दूसरी के पास जाऊं तो पूरा सौ ले के भी इतना ख़याल रखे। वो तो कई सौ देती भी है और मेरे पसीने पर ख़ून भी बहाती है, समझे?... मैंने अपने आपसे कहा है कि मैं क्या समझूं। कोई मिल जाये तो समझ में भी आजाए।

    ये देख कर कि मैं उसी नाली के मुँह पर खड़ा हूँ जिसमें वो साँप दाख़िल हुआ था, मैं डर के मारे इतना तेज़ तेज़ आगे हो लिया हूँ कि क़रीब ही एक मुर्ग़ी मेरी टांगों में से फड़फड़ा कर मेरे आगे निकल गई है और उसकी तरफ़ देखते हुए मुझे लगा है कि मैं रुलदू की जोरू के पीछे भाग रहा हूँ।

    अगले ड्रम का कूड़ा भर भर के नीचे ज़मीन पर बिखरा हुआ है। ड्रम को उल्टने से पहले मैं उसके पहलू में बैठ गया हूँ। और अभी मेरी आँखें ज़मीन पर अपने मतलब की चीज़ ढूंढ रही हैं कि इस कोठी वालों की नौकरानी यकलख़्त दरवाज़े से निकली है और मेरे सर पर घर का फुज़ला इस तरह उलट दिया है जैसे कूड़े के ढेर पर ही कूड़ा फेंक रही हो। मैं उस वक़्त तक सांस रोके ढेर का ढेर पड़ा रहा हूँ जब तक उसने वापस अपने दरवाज़े में दाख़िल हो कर अंदर से चटख़्नी नहीं चढ़ा ली है और फिर बदन झटक कर खड़ा हो गया हूँ और ड्रम को टेढ़ा करते हुए बाबू को इशारा किया है कि अपना काम शुरू कर दे।

    इस ड्रम के घर वाले दो भाई हैं जो कपड़े का व्यापार करते हैं। बड़ा भाई दौलत के नशे में खोया हुआ है और छोटा है ही पागल, बड़ा नीचे रहता है और छोटा पहली छत पर, और सबसे ऊपरी छत पर एक कमरा है जिसमें उन दोनों की बूढ़ी और अपाहिज माँ रहती है। कई बार बुढ़िया की रोने की आवाज़ सुनकर मैं अपना काम रोक कर सर उठाए ऊपर देखने लगता हूँ और मेरी नज़र आँखों से निकल कर बुढ़िया के पास जा पहुँचती है...ये देखो, तुम्हारे लिए गुड़ के चने लाया हूँ माँ। दाँत नहीं हैं तो गुड़ ही चूस लो। ख़ैर? ख़ैर कहाँ से लाऊं माँ...? उन भाईयों के नौकर ने एक-बार मुझे बताया था कि बुढ़िया हर वक़्त ख़ैर मांग मांग कर रोती रहती है और चुप होती है तो आसमान की तरफ़ सर उठा के इस तरह मुँह खोल कर हिला रही होती है जैसे ऊपर से मुँह में ख़ैर टपक रही हो। अपनी माँ को तो ये भाई तरसा तरसा कर मार रहे हैं मगर उनके ड्रम में इतनी झूटन होती है कि दस लोगों का आराम से पेट भर जाये। मन्नु कबाड़िया जिस दिन मुट्ठी गर्म नहीं करता उस दिन मैं यहीं से अपने पेट का ईंधन चुन लेता हूँ। मुँह बना बना कर खाना शुरू करता हूँ मगर खाते हुए जो मज़ा आने लगता है तो उस वक़्त तक बाबू को पास नहीं फटकने देता जब तक ख़ूब सेर होजाऊं। दोनों की बीवियां आप तो खट मिट्ठी हैं ही, खाना वो अपने से भी खट मिट्ठा बना लेती हैं, इसी लिए दोनों भाईयों के पेट इतने फूले हुए हैं। अपने नौकर बीता को उन्होंने निकाल दिया है। वो मुझे बीड़ियों के धुंए में उनकी धुआँ धुआँ बातें भी सुनाता था। अच्छा ही हुआ जो वो चला गया वर्ना मैं अपना काम धंदा छोड़कर उसके साथ बैठ जाता था। बड़ा भाई अपने पगले भाई को इस तरह डाँटता रहता है जैसे अपने बेटों को, मगर उसकी बीवी को जहाँ-तहाँ अकेला पा लेता है तो हाथ डालने से बाज़ नहीं आता। छोटी के पांचों के पांचों बच्चे बड़े भाई के हैं। बीता ने मुझे बताया था... लो और बीड़ी पियो! और सुनाऊं? बड़ी भी अपने आदमी से कम नहीं। उसने अपने बावले देवर को ऐसे राम कर रखा है कि उसकी समझ में और कुछ आए आए वो अपनी प्यारी भाबी की बात को फ़ौरन भाँप जाता है। बड़ी के दोनों छोटे बच्चों का मुँह माथा हू-ब-हू अपने बावले चचा का सा है। इस बाली उम्र में भी वो इतने गंभीर और सख़्त हैं कि उन्हें दूर से देखकर ही पगले को दो-दो बाप नज़र आने लगते हैं और ख़ौफ़ से उसका पेशाब निकल जाता है।

    बीता को भाईयों ने इसलिए निकाल फेंका था कि रन भूमी के तेवर देखकर एक दिन उस बेचारे की खोपड़ी उल्टी हो गई और वो बड़ी को माँ कहने के बावजूद उसे लूट का माल समझ बैठा और अपने बावले मालिक की तरह मुँह में अँगूठा डाल कर उसकी तरफ़ बढ़ता ही चला गया। पर छोटी हो या बड़ी, माल तो भाईयों का ही था। बीता को मार मार कर बाहर निकाल दिया गया शरीफ़ों के घरों में ग़ुंडों का क्या काम? जाओ... जाओ, जो यहां करना चाहते थे अपनी माँ बहन से करो।

    मैं उनकी गंदगी को फोड़ फोड़ कर देख रहा हूँ। मन्नु कबाड़िये ने मुझे बताया था कि बड़े दुकानदारों के ड्रम ध्यान से देखा करो। ये लोग काला धंदा करते हैं और जब पुलिस के छापे का डर हो तो जान बचाने के लिए नोटों की गड्डियां भी कूड़े में फेंक देते हैं। नामालूम मुझे क्यों यक़ीन सा है कि कभी कभी ज़रूर मुझे यहां से नोट ही नोट हाथ आएँगे मगर इतने सारे नोटों से मैं क्या करूँगा? मन्नु कबाड़िये के पास ले जाऊंगा...? वो तो सारे नोटों की कुल क़ीमत भी रुपये दो रुपये से ज़्यादा नहीं लगाएगा... अब तो ख़ुश हो फिज्जू ? क़ीमत से पूरे पच्चीस रुपये ज़्यादा दे रहा हूँ।

    आज मुझे भाईयों के यहां से कुछ भी नहीं मिल रहा। छोटी और बड़ी की माहवारी की सूखी कतरनें उनकी झूटन में भीग रही हैं, या फिर निरोध के चंद टुकड़े हैं जिन्हें मैंने साफ़ कर के थैले में फेंक लिया है, हर घर के ड्रम से चंद एक ठीक ठाक टुकड़े मुझे ज़रूर मिल जाते हैं। कई बार तो कौड़ी से भी ऊपर हो जाते हैं। मैं उन्हें भी मन्नु को ही थमा आता हूँ। उन्हें साबुन से धो कर लाया करो फिज्जू मैं तो ऐसे ही ले जाता हूँ। इतने पैसे भी नहीं देता कि देसी साबुन का एक टुकड़ा ही मिल जाये। अपने सर से धोऊँ? छोटी और बड़ी के बालों के गुच्छों को भी साफ़ करके मैंने झोले में डाल लिया है। मन्नु बोलता है सुनहरी बाल लाया करो। सुनहरी बाल लाने के लिए विलाएत जाऊं? जो मिलता है वही लेकर शुक्र करते जाओ मन्नु भाई। औरतों की बुद्धि भ्रष्ट होती जा रही है। यही हालत रही तो सबकी खोपड़ियाँ गंजी हुआ करेंगी। फिर सुनहरी तो क्या, सफ़ेद बाल भी देखने में आएँगे... अचानक मुझे ऊपर से भाईयों की बुढ़िया के रोने की आवाज़ सुनाई देने लगी है। दोनों बेटे चोरी चोरी एक दूसरे की बीवी को लिए पड़े होंगे, बुढ़िया की ख़बर कौन ले?

    मैं सोचने लगा हूँ कि बुढ़िया अगर अपने घरवालों के लिए कूड़ा हो कर रह गई है तो उसे धप से बाहर कूड़े के ड्रम में क्यों नहीं डाल देते? मैं ख़याल ही ख़याल में बुढ़िया को पोंछ पांछ कर अपनी झोंपड़ी में ले आया हूँ... लो भाई फ़क़ीरे, देखो हम दोनों की माँ आई है। मेरी झोंपड़ी में रखा ही क्या था जिस पर पहरा देते रहते थे? घर तो अब भरा है। जब भर के अब माँ की देख रेख किया करो... लो, माँ, तुम्हारे लिए ये गुड़ के चने लाया हूँ... गुड़ के चने मुझे बहुत अच्छे लगते हैं और मैं फ़क़ीरे पर अक्सर इसलिए चिड़ने लगता हूँ कि मुझे गुड़ के चने खाते देख लेता है तो बे इख़्तियार भूँकने लगता है। अरे भई, तुम्हें अच्छे नहीं लगते मगर मुझे तो खाने दो... खाओ माँ। दाँत नहीं तो गुड़ ही चूस लो, और लो।

    माँ गुड़ के चनों का गुड़ चूस रही है और उसका ज़ायक़ा मेरे ख़ाली मुँह में घुल रहा है और फ़क़ीरे मेरा मज़ाक़ उड़ाने के लिए भोंक रहा है... अरे चल हट...! कुत्ते की ज़ात, तुम्हें क्या पता, आदमियों का खाना क्या होता है? तुम खाओ, माँ। और दूं...? नहीं, मेरे माँ नहीं है, कभी थी... मेरा बाप? माँ ही थी तो किस ने उसे गले लगा कर मुझे पैदा किया होगा? किसी मलबे में से आप ही आप कुलबुलाते हुए फूट पड़ा हूँगा... लो माँ और लो...

    मैं यूंही कूड़ा रोले जा रहा हूँ। वहां कुछ हो तो मिले। बड़ी ठंडी सांस भर की मैं घुटनों के सहारे उठ खड़ा हुआ हूँ और अभी चंद ही क़दम चला हूँ कि किसी बच्चे के रोने की नहीफ़ सी आवाज़ सुनकर मेरे कान खड़े हो गए हैं। मैंने बड़े ध्यान से अपने आस-पास देखा है। कोई भी तो नहीं... आवाज़ फिर आई है। और हम दोनों जानवर, बाबू और मैं। एक दम एक सिम्त हो लिये हैं और एक खुले ड्रम के पास खड़े हुए हैं जिसमें कूड़े की सेज पर एक नौज़ाईदा बच्चा अपनी पीठ पर लेटे नन्हे-मुन्ने हाथ पैर मार रहा है और उसे देख देखकर मुझे लगा है कि मेरी छातियां दूध से भर कर फूल गई हैं और मैंने उसे अपनी आँखों की सारी नर्मी से हाथों में ले लिया है और सोचने लगा हूँ कि क्या समय आगया है। संगदिल अपनी नसलों को पैदा होते ही कूड़े में डाल देते हैं।

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