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नथ उतराई

MORE BYवाजिदा तबस्सुम

    बार माँ के साथ पीटी बजाने किसी रईस की महफ़िल में गई। हारमोनियम बजाते-बजाते दो एक-बार किसी से आँखें मिला बैठी। मुलाक़ातें बढ़ती गईं, पता चला मोटर चलाने पर नौकर हैं। इतनी-उतनी नहीं पूरे डेढ़ सौ तनख़्वाह पाते हैं... हुनर हाथ में हो तो इंसान कहीं भी हाथ पाँव चला सकता है। आगरा क्या और बंबई क्या। वैसे तो दुनिया जानती है कि सारे दुनिया-भर के भगोड़ों को पनाह देने का बा-क़ाएदा ठेका बंबई ने ले रखा है। फिर किले ख़ाँ और जीनूँ क्या दो आदमियों की जगह इतनी बड़ी बंबई में नहीं निकल सकती थी।

    क़ुदरत भी बड़ी फ़य्याज़ है। कम से कम ग़रीबों को हुस्न बख़्शने के मुआ’मले में। वर्ना हुस्न भी अगर बाज़ार में दुकान पर बिकने वाली शय होती तो ये कम-बख़्त अमीर तो पैसे वाले होने के साथ-साथ हसीन भी बन कर बैठ जाते, मगर ये भी तो ख़ुदा की बड़ाई का एक बीन सबूत है कि जिसे चाहे हुस्न की दौलत से नवाज़े।

    थी तो एक मीरासन बच्ची... जिसकी सारी ज़िंदगी लोगों की शादियों की झूटन खाते, दुल्हन की उतरन पहनते और बेल और सदक़े के पैसे चुनते गुज़री। लेकिन कोई सूरत देखता तो देखता ही रह जाता। शाहज़ादियों जैसा तमकनत भरा हुस्न पाया था कम-बख़्त ने और सौतेली माँ का ज़ुल्म भी यहाँ सोने पर सुहागे का काम कर गया। आँखों में ऐसी मज़लूमियत और सहमापन मुक़ाम कर गया कि जो भी देखता उसका जी चाहता कि ऐसी मा’सूम और मज़लूम हस्ती को अपने कलेजे में भर ले... मर्दों की एक ख़ासियत ये भी है कि वो हर दुखी लड़की को कलेजे से लगाकर उसका ग़म भुला देना चाहते हैं।

    आगरा से भाग कर आई तो जीनूँ के दिल में हज़ार वसवसे थे, “अल्लाह जाने बंबई और बंबई वाले क्या सुलूक करें...”

    लेकिन जान पहचान के किसी दूर-दराज़ के दोस्त ने सहारा दिया तो उसे लगा कि दुनिया इतनी बुरी भी नहीं जितनी लोग बताते हैं। किले ख़ाँ ने उससे बा-क़ायदा अ’क़द तो कभी नहीं किया लेकिन था बड़ा अ’क़्ल-मंद। चार आने वाली सियाह बारीक मोतियों का पचलड़ा पहले ही उसके गले में बाँध लाया था कि सुहागन समझी जाए और बंबई के चलन के मुताबिक़ “मंगल सूत्र” गले में पड़ा देखा तो किसी ने पूछने या सोचने की भी ज़हमत की कि अस्ल मुआ’मला किया है... हालाँकि किले ख़ाँ बेहद रो’ब-दाब से समझाता आया था, “शादी हमने की है करेंगे। मगर कोई भी पूछे महर कितना है तो कह देना ग्यारह हज़ार है...”

    वैसे वो ग्यारह हज़ार छोड़ ग्यारह लाख भी कह देती तो किले ख़ाँ का कौन सा दीवाला पट जाता। यूँ भी आजकल तो फ़ैशन के तौर पर महर बाँधते हैं। अदा कौन करता है... उसने सर हिलाकर मा’सूमियत से कह दिया, “अच्छा...”

    “और कोई पूछे जहेज़ का सामान कहाँ है तो कह देना कि अभी नए-नए आए हैं कहाँ सामान बटोरते फिरते। इसलिए मैके ही में धरा है।”

    “कह दूँगी वो”, बेहद फ़र्मां-बरदारी से बोली, “और अगर किसी ने जे़वरात के बारे में पूछा तो?”

    इस मुआ’मले में ख़ुद किले ख़ाँ भी परेशान थे... क्यों कि ज़ेवर तो ऐसी चीज़ है भई कि औ’रत जिस्म पर लादे रहती है... नहीं सौ-पचास तोले तो दो-चार तोले ही सही। मैं बोल दूँगी अभी माँ के पास ही धरा है। किले ख़ाँ ने जिज़-बिज़ हो कर उसे टोका, “माँ नहीं, पढ़े लिखों की तरह अम्मी जान कहो भई...!”

    किले ख़ाँ छः क्लास पास थे। और बड़े घर में ड्राईवर थे। इसलिए ज़बान-दानी का ख़ास ख़याल था।

    जीनूँ ने मुस्कुराकर देखा। ये मुस्कुराहट बड़ी ही मा’नी-ख़ेज़, बड़ी ही हौसला-ख़ेज़, बड़ी ही ख़ामोश कटारी जैसी थी... जैसे कहती हो... सब समझती हूँ... तुम छः क्लास पढ़े हो... देखने-दिखाने में भी अच्छे हो... इ’ज़्ज़त का ख़याल रखते हो। नहीं चाहते कि कोई समझे कि ये बीवी बीवी नहीं भगोड़ी है... तुम्हें इ’ज़्ज़त चाहिए ना...? ठीक है मैं तुम्हारी इ’ज़्ज़त को अपने हाथ में रख रही हूँ...

    वो दूसरा ही दिन था... नहा-धोकर जीनूँ जब गैलरी में आई तो पास पड़ोसनें हैरत से उसे देखने लगीं। किले ख़ाँ भगाकर लाया था तो क्या हुआ... उसकी जवानी का मीठा-मीठा रस पिया था तो क्या हुआ, उसके बदले में प्यार भी तो दिया था। और कपड़े लत्ते भी सलीक़े के... इस वक़्त वो फूलदार जॉर्जट की साड़ी पहने हुए थी... काजल भरी काली काली आँखें और लिपस्टिक से सजे-सजे सुर्ख़-सुर्ख़ होंट... पड़ोसनों की हिम्मत हुई कि उसे बहन या आपा के नाम से मुख़ातिब करें... एक ने डरते डरते पूछा, “बेगम साहिबा आप कहाँ से आई हैं...”

    दीवाली के पटाख़ों में एक चीज़ होती है अनार... उस कम-बख़्त को आग लगाकर छोड़ दो तो बस फिर ऊपर ही ऊपर चला जाता है नीचे आता ही नहीं...” बेगम साहिबा का फ़लीता ऐसा लगा कि जीनूँ ऊपर ही ऊपर चढ़ती गई... अब नीचे आने का सवाल ही पैदा नहीं होता था...।

    “आगरा से...”, उसने तमकनत से जवाब दिया जैसे पूरा आगरा उसकी तहवील में था।

    “आप जितनी ख़ूबसूरत हैं, आपका नाम भी इतना ही ख़ूबसूरत होगा।”, किसी स्कूल की लड़की ने मुस्कुराकर पूछा।

    बस यही एक लम्हा था जब वो पाताल में गिर सकती थी लेकिन वो बर-वक़्त सँभल गई। उसने नज़ाकत से पल्लू सिर के गिर्द लपेटा... एक बेगमाती शान उसके चेहरे से छलकने लगी... वो ज़रा मुस्कुराकर बोली, “जहाँआरा बेगम...”

    पिछली बार, भागने से कुछ दिन पहले जिस घराने में माँ के साथ हारमोनियम बजाया था, वहाँ दुल्हन का नाम जहाँ-आरा बेगम ही तो था। और उसे अच्छी तरह याद था, प्यार से उसकी सहेलियाँ जब उसे दूल्हे का नाम ले-ले कर छेड़ रही थीं तो बजाए पूरा नाम लेने के जीनूँ... जीनूँ कहती थीं... तो क्या वो जीनूँ से जहाँआरा बेगम नहीं बन सकती। नाम बदल लेने में कौन से हाथी घोड़े और तुमतराक़ लगता है।

    ये ज़रूर है कि अब तक की ज़िंदगी बड़ी बद-मज़गी, बे-कैफ़ी और बे-इ’ज़्ज़ती में गुज़री थी। अब अपने घर में तो जो इ’ज़्ज़त थी सो थी, लेकिन शादी के घरों में डोमनियों और मीरासनों की क्या इ’ज़्ज़त होती है? घरवाले साथ बिठाना तो दूर रहा खाना तक ज़मीन पर खिलाते... सब के बा’द में दस्तर-ख़्वान लगा दिया जाता है कि अपने कुन्बे के साथ लचड़-पचड़ खाते रहो... और फिर पैसे वालों का बरताव...? कितनी बार ऐसा हुआ कि अँधेरे-उजाले किसी किसी ने मोटर के हॉर्न की तरह सेना पकड़ कर दबा दिया... इसमें बूढ़ों और जवानों की भी क़ैद थी। बस मौक़ा’ मिलने का सवाल था... और वो राज़ों के इसरार से पर्दे उठाती हुई एक अ’जीब-ओ-ग़रीब रात...।

    गर्मी के मारे जब वो शादी के घर के बाग़ वाले बरामदे में अकेली सोई पड़ी थी तो किसी ने अँधेरे में उसका इज़ार-बंद खोल दिया था और जब तक कि वो हालात की पेचीदगी का जाएज़ा लेती या कुछ सोच ही पाती... सब कुछ बराबर हो चुका था और कड़कड़ाते काग़ज़ की एक छोटी सी तह उसकी हथेली में पड़ी फ़रियाद किए जा रही थी... उजाले में चलो और मुझे देखो... तुम्हें पता तो चले तुम्हारी क़ीमत क्या है... तुम्हारा मोल किया है। बड़ी मुश्किल से वो उठी थी... बाहर जाकर मलगजे उजाले में नोट की तह खोली और बस देखती ही रह गई... वो एक रुपये का नोट था। उसे हँसी गई। अगर वो जवाँ मर्द ये एक रुपया भी देता तो मैं उसका क्या बिगाड़ लेती...? लेकिन चलो अच्छा है उसने रास्ता तो बता दिया कि ये भी एक दुकान है जो चलाई जा सकती है?

    गो ये दुकान अभी ज़ियादा दिनों नहीं चली थी कि उसके दिल पर मुहब्बत का वार चल गया और वो अपने पीछे एक सड़ी मारी दुनिया छोड़कर किले ख़ाँ के साथ चली आई और दर-अस्ल उसे आगे चलते हुए, पीछे छूट आने वाली दुनिया का रत्ती भर भी मलाल था ही डर... डर होता भी का है का...? दुनिया में सबसे ज़ियादा डर किसी भी औ’रत को अपनी इ’ज़्ज़त लुटने का होता है... जब इ’ज़्ज़त ही नहीं रही तो फिर डर काहे का...? जो दुकान आगरा में चार लोग मिलकर चलाते थे यहाँ अकेला किले ख़ाँ चलाएगा। बात बिल्कुल एक ही थी... बहर-हाल पैसे की ज़रूरत थी जो पहले भी थी अब भी थी। पहले भी वही तरीक़ा था अब भी वही तरीक़ा था। और वैसे देखा जाए तो, उसने ठंडे दिल से सोचा। ये मौलवी की मौजूदगी में, वकीलों की गवाही में जो निकाह पढ़ाए जाते हैं और औ’रत को किसी एक मर्द की क़ैद में ज़िंदगी-भर के लिए दे दिया जाता है तो बिल्कुल वही सिलसिला है औ’रत से रात को “कुछ” लेते रहो और दिन-भर उसके मुआवज़े में कपड़ा-लत्ता, खाना दाना देते रहो...

    एक लफ़्ज़ “बेगम साहिबा” ने उसे कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया था... उसका रख-रखाव देख कर किसी को उससे ज़ियादा बातें बघारने की हिम्मत पड़ी।

    किले ख़ाँ के दोस्त ने अपने दोस्त और भाबी की आमद की ख़ुशी में मुहल्ले ही में एक पार्टी का इंतिज़ाम कर डाला... एक घर में हारमोनियम भी था... चाय पार्टी के बा’द गाने बजाने की महफ़िल जमी और किसी ने यूँही सर-ए-राह भाबी जहाँ-आरा बेगम से गाने की फ़रमाइश कर डाली तो वो तमकनत से अपना पल्लू सँभालती हारमोनियम पर जा बैठीं। नाज़ुक उंगलियों से ऐसे सुर निकाले और ऐसा अच्छा गीत गाया कि महफ़िल दंग रह गई। और फिर ता’रीफ़-ओ-तौसीफ़ का ऐसा सिलसिला और शोर उठा कि किले ख़ाँ की, जो यकसाँ जहाँ-आरा को घर चलने को कह रहा था, आवाज़ ही दब कर रह गई। और फिर यूँ हुआ कि हमेशा के लिए किले ख़ाँ की आवाज़ ही दब कर रह गई। क्यों कि फिर यूँ हुआ कि जहाँ-आरा बेगम ने तोड़-जोड़ करके अपना एक हारमोनियम ख़रीद लिया और रात को गाने बजाने का सिलसिला शुरू’ कर लिया।

    पहले-पहल तो मुहल्ले वाले आते, ख़ुश हो कर दाद देते और अपनी ख़ुशी का इज़हार रुपये दो रुपये देकर करते। फिर ज़रा बड़े पैमाने पर ये महफ़िलें जमने लगीं। जब औ’रत कमाने लगती है तो औ’रत के मुँह में ज़बान की जगह एक धारदार छुरी जाती है... और ये कमाई जब अपनी ही दुकान की हो तो छुरी दो-धारी हो जाती है। और मर्द जब देखता है कि औ’रत की दुकान ख़ूब चल निकली है, ग्राहकी बहुत बढ़ गई है तो वो अपनी ज़बान बंद कर लेता है। क्योंकि बहर-हाल दो चीज़ें साथ नहीं चल सकतीं। या तो दुकान चले या ज़बान चले... पहले-पहल किले ख़ाँ की ज़बान ज़ियादा चलने लगी तो उसे अपनी महफ़िलों की बद-मज़गी जान कर जहाँ-आरा ने उसे अफ़ीम देनी शुरू’ कर दी... फिर वो अफ़ीम का इस क़दर आ’दी हो गया कि हर बात से बे-फ़िक्र हो गया... बे-फ़िक्री ने ज़बान बिल्कुल ही बंद कर दी और यूँ जहाँआरा बेगम की दुकान ख़ूब चल उठी।

    वक़्त ने हर तरह का सलीक़ा और क़रीना सिखा दिया। सबसे पहले जहाँआरा बेगम ने इस गंदे मुहल्ले को छोड़कर एक आ’ला सोसाइटी में शानदार फ़्लैट किराये पर लिया। नए फ़ैशन के रंग-ढंग से फ़्लैट को आरास्ता किया लेकिन एक कमरा अपने पुराने-पन की तहज़ीब की यादगार बनाकर रखा। बड़ा सा नर्म गदेला... उस पर शफ़्फ़ाफ़ सी चाँदनी बिछी हुई। बड़े-बड़े गाव तकिए... मुलाइम गाल तकिए, बाज़ू तकिए। एक कोने पर चाँदनी का बड़ा सा पानदान धरा हुआ। पान की वज़्अ’ का नागरदान, जिसमें सलीक़े से लगे हुए पान रखे हुए। कोने में उगालदान, एक कोने में क़ालीन पर तबले, हारमोनियम, ढोलकी और कुछ साज़ महज़ सजावट और रौब-दाब के लिए। और फिर उसी कमरे में क़ालीन और गदीले को छोड़कर चिकना बड़ा सा फ़र्शी हिस्सा यूँही छोड़ दिया गया था कि नाचने के काम आए।

    इसके साथ ही एक और कमरा लगा हुआ था, जो हर चहार तरफ़ से आईनों से घिरा हुआ था। यहाँ एक डबल बैड मसहरी-नुमा लगा हुआ था... कारोबार बढ़ गया था ना... कई बार ऐसे मवाक़े जाते कि किसी किसी को यहीं फ़्लैट ही में “सँभालना” पड़ जाता... ये कमरा ऐसे ही मौक़ों के लिए बतौर-ए-ख़ास बनाया और सजाया गया था। अंदर और भी कई कमरे थे जिनमें नौकर, नौकरानियाँ रहतीं... एक कमरे में किले ख़ाँ नशा किए पड़े रहते... उनके कमरे पर हमेशा पर्दे झूलते रहते... औ’रत जब तक पर्दे में रहती है उसे क़दम-क़दम पर मर्द के सहारे की ज़रूरत महसूस होती है लेकिन जब वो पर्दे से बाहर आती है तो मर्द उसके लिए बे-मुसर्रफ़ चीज़ बन कर रह जाता है। और किले ख़ाँ तो उसके लिए बहुत ही जल्द बे-मुसर्रफ़ बन कर रह गए थे... भगौड़ी औ’रत के लिए दुनिया अपने दरवाज़े खोल देती है मगर मर्द भगौड़ा हो कर निखट्टू बन जाता है...

    ड्राइवरी मिल तो ज़रूर जाती अगर कोशिश करते मगर जिस मर्द को गाड़ी की बजाए औ’रत चलाने की आ’दत पड़ जाए, उसे फिर नौकरी करने की ज़रूरत ही बाक़ी नहीं रह जाती। पहले-पहल गाने बजाने के पैसे आए तो किले ख़ाँ को बड़ा बुरा लगा था लेकिन जब कोई और भी आमदनी घर की रौनक़ बढ़ाने लगी तो वो मार-पीट पर उतर आया। लेकिन ये सिलसिला बहुत ही कम दिनों चला। क्योंकि एक दिन लड़ाई लड़ाई में जहाँ-आरा ने ऐसी कम-ज़र्फ़ी की बात की कि वो सुन हो कर रह गया... उसके पर्स में पाँच सौ के नोट देख कर किले ख़ाँ ने बद-चलनी का इल्ज़ाम लगाया तो वो बड़ी रऊ’नत के साथ बोली, “तुम तो अपना हुनर आगरा ही में गिरवी रखकर गए थे... यहाँ आकर एक दिन भी नौकरी की? अगर मैं ही हालात को सँभालती तो पता चलता?”

    वो चिल्लाया, “हालात ऐसे सँभाले जाते हैं कमीनी?”

    वो तड़ाख़े के साथ बोली, “रुपये-रुपये में इज़ारबंद खुलवाने वाली अगर एक-एक रात के पाँच-पाँच सौ कमाने लगे तो क्या फिर भी वो तुझ जैसे ढीले ना-मर्दे को अपना शौहर मानेगी?”

    “कमीनी... गंदी... चुड़ैल... अपनी ज़बान से ख़ुद अपने करतूत मुझे सुना रही है...”, वो हाथ बढ़ाकर लपका। लेकिन उसने अपना सोने के कंगनों से झमझमाता हाथ बढ़ाकर मर्द का हाथ मरोड़ कर नीचे गिरा दिया।

    “आइंदा से मारने की हिम्मत भी करना किले ख़ाँ। तुमको पता नाहो तो सुना दूँ, मेरा नाम जहाँआराम है, मैं दुनिया-भर को आराम देने के लिए पैदा की गई हूँ सिर्फ़ तुम अकेले को नहीं... समझे...? और वैसे दुनिया वाले मुझे जहाँ-आरा बेगम के नाम से जानते हैं... मेरा महर ग्यारह हज़ार रुपये है... और मेरा सारा जहेज़ और ज़ेवर अभी तक मैके में रखा हुआ है। किसी भी दिन यहाँ से ग़ाइब हो जाऊँ तो कोई ये नहीं पूछेगा कहाँ गई। सब समझेंगे अपने मैके चली गई... लेकिन ढीले ख़ाँ मैं तुम्हें छोड़ गई तो तुम्हारा क्या होगा...? नशा पानी कहाँ से करोगे?”

    यहाँ आकर किले ख़ाँ मजबूर महज़ हो कर रह जाता था... और इसीलिए उसने होंटों पर क़ुफ़्ल डाल लिया था... और इसी ख़ामोशी से ख़ुश हो कर जहाँ-आरा ने किले ख़ाँ को मुस्तक़िल “ख़ान बहादुर” का ख़िताब दे दिया था, जिसमें ता’रीफ़ और इ’ज़्ज़त कम और ज़िल्लत ज़ियादा नुमायाँ थी।

    इन्ही सालों में पता नहीं किस दिल वाले की देन थी, एक बेटी जहाँ-आरा की पैदा हो गई थी... जिसे ख़ान साहब ख़ुश हो-हो कर अपनी बेटी कह कर पाल रहे थे... हालाँकि हक़ीक़त ये थी कि मुद्दतों से जहाँ-आरा ने किले ख़ाँ के साथ भाई बहन का सा रिश्ता बाँध रखा था। लेकिन वो सोचती बुरा भी क्या है। दुनिया में रहना है तो अपने लिए नहीं, बेटी के मुस्तक़बिल के लिए एक नाम-निहाद बाप का वजूद भी तो ज़रूरी है ही... क्या बुरा है अगर ये पापड़ ही आड़ बन जाए? वैसे ये बात अपनी जगह सही थी कि उसे भी नहीं मा’लूम था कि उसका असली बाप है कौन...

    लेकिन किले ख़ाँ ने चमन-आरा को वाक़ई’ बेटी की तरह चाहा... नशे की टूट होती तो उसे उर्दू से लेकर नमाज़, रोज़ा, क़ुरआन शरीफ़ तक समझाता-पढ़ाता... ज़माने का रंग देखते हुए ख़ुद जहाँ-आरा ने ही उसे अंग्रेज़ी स्कूल में डालना चाहा लेकिन हुआ ये था कि चंद सालों से उसने ख़ुद को डेरेदार तवाइफ़ की हैसियत से मनवा लिया था... सारा ज़माना जानने लगा था कि आगरा के नामी गिरामी घराने की तहज़ीब-याफ़्ता मुग़न्निया, गुलूकारा बंबई में बिराजी हैं... पता नहीं कितनी चवन्नी अठन्नी में रात बिताने वाली बंबई आकर आगरा ग़रीब की शान बढ़ा रही हैं, बहर-हाल जहाँ-आरा ने तो ख़ुद को इस हैसियत से मनवा छोड़ा था कि नवाबों के साहब-ज़ादे मेरे घर तहज़ीब और रख-रखाव सीखने आया करते थे... और यक़ीन करने की कोई वज्ह भी थी...

    तो भई अब ऐसी डेरेदार बेगम साहिबा की बिटिया को इंग्लिश ता’लीम ज़ेबा नहीं देती... इसी मारे उन्होंने घर ही पर बिटिया को हर हर क़िस्म की ता’लीम दिलवानी शुरू’ की... इसमें पढ़ाई लिखाई से लेकर नाच-गाना बजाना सब ही कुछ शामिल था। नाज़-ओ-अंदाज़ सीखने और दिखाने की ख़ातिर जहाँ-आरा अपनी महफ़िलों में जान-बूझ कर बिटिया को भी बुलाकर बिठातीं... हर-चंद कि चिड़िया के बच्चे को उड़ना और मछली के बच्चे को तैरना सिखाना नहीं पड़ता लेकिन अपनी तरफ़ से कसर क्यों छोड़ी जाए? एक तरफ़ मेक-अप की तहें दबीज़ से दबीज़-तर हो रही थीं और दूसरी तरफ़ आग बरसाती जवानी बहार पर रही थी... और उस दिन जहाँआरा बेगम ने ज़माने के आगे हथियार डाल दिए, जब उनके एक मिलने वाले साहब-ज़ादे क़मर-उल-ज़माँ साहब जो कि उ’म्र में चमन-आरा से तिगुने-चौगुने होंगे, तिरछी नज़रों से, हवस-ख़ेज़ नज़रों से उसे घूरते हुए कहा, “बेगम साहब... इतनी तीखी नाक में ये सोने की हक़ीर नथुनी कुछ जे़ब नहीं देती...”

    “जी हाँ...,” वो सीने में उभरते हुए उबाल को दबाने की नाकाम कोशिश करती हुई बोलीं, “मैंने एक नथ सराफ़े में देखी है, हिम्मत नहीं पड़ती... हैं तो छोटे-छोटे पंद्रह हीरे... लेकिन कम-बख़्त सवा लाख क़ीमत बता रहा था...”

    “आप भी कमाल करती हैं... सवा लाख भी कोई चीज़ है?”, उन्होंने हाथ बढ़ाया, “लेकिन वा’दा रहा कि ये सआ’दत बस हमें ही हासिल होगी...”

    जहाँ-आरा बेगम ने उनकी हथेली पर अपनी हथेली रख दी... यही वो हाथ था जो आज तक उनके अपने हाथ के लिए बे-क़रार रहता था... गो तअ’ल्लुक़ात जिस्मानी हदूद तक कभी नहीं पाए। क्योंकि जहाँआरा बेगम उ’म्र के उस दौर में थीं जब कि लाख बँधे-कसे रहने के बा-वजूद भी जिस्म में ढलक जाती है और कपड़ों से बे-नियाज़ जिस्म यहाँ-वहाँ से ओझड़ी की तरह लटका-लटका नज़र आता है, और एक रंडी जब अपने जिस्म की इस बे-वफ़ाई से आगाह हो जाती है तो महज़ बात-चीत, अदाओं और लगावट से ग्राहकों को रिझाना और टर्ख़ाना शुरू’ कर देती है।

    जहाँ-आरा ने बचपन से ग़रीबी का मुँह देखा था... पैसे के लिए बे-आबरू हुईं थीं... रोटी के झूटे टुकड़ों के लिए शादियों में बधाईयाँ गाई थीं। और अँधेरे-उजाले अपनी कोमल जवानी के कच्चे-पक्के फल नुचवाए थे। वो ख़ूब समझती थीं पैसा क्या होता है। पैसे की क्या क़द्र होती है... जो सबक़ उन्होंने ज़िंदगी में सीखा था, अपनी बेटी को पढ़ाने में ज़रा भी शर्म उन्हें आई थी, आती थी... पैसा ही ईमान... पैसे के आगे हर चीज़ हेच थी, लेकिन उस वक़्त एक अ’जीब सी कश्मकश उन्हें मरोड़े डाल रही थी... एक शख़्स जो मुद्दतों से सिर्फ़ उनके दीदार का प्यासा था... इन पर रुपये ज़ेवर की बारिश करता रहा, अब अचानक कैसे बदल गया... लेकिन ठीक है सब कुछ ठीक है... पैसा ही सबसे बड़ी चीज़ है... पैसा मिलना चाहिए। हर तरीक़े से, हर रास्ते से...”

    उन्होंने अपने उथल-पुथल करते दिल को क़ाबू में करके मुस्कुराते हुए कहा, “ये सआ’दत यूँ समझिए आपको हासिल हो चुकी... शरीफ़ों में ज़बान का ही ख़याल रखा जाता है, वर्ना और दुनिया में रखा क्या है...”

    साहब-ज़ादा क़मर-उल-ज़माँ उठने लगे तो जहाँ-आरा बेगम ने झिजकते हुए पूछा, “बेगम साहिबा क्या ख़याल करेंगी?”

    क़मर-उल-ज़माँ साहब जागीरदारों की उस कुल से थे जहाँ बीवी को ब्याह कर लाते हैं और फिर दो एक रातों के बा’द भूल जाते हैं कि महल में कोई ज़ी-नफ़स मौजूद भी है... भई आख़िर थान पर जानवर बँधते ही हैं, एक-आध का इज़ाफ़ा हो जाने से साहिब-ए-ख़ाना की सेहत पर क्या असर पड़ सकता है...?

    क़हक़हा लगाकर बोले, “उसकी आप फ़िक्र कीजिए... हम अलग कोठी में भिजवा देंगे उन्हें...!”

    “और मौजूदा कोठी...?”, उन्होंने रुकते-रुकते पूछा।

    “आप कहेंगी। तो मुँह दिखाई या नथ-उतराई की ख़ुशी में चमन-आरा को दे देंगे।”

    जहाँ-आरा ने बे-इख़्तियार झुक कर उनके हाथ चूम लिए।

    रात को तन्हाई में जहाँ-आरा बेगम बेटी से बोलीं, “बेटी मुझे तुम्हारा बुरा भला ख़ूब समझना है। लेकिन फिर भी मैंने तुम्हारे लिए एक बात सोची है...”

    नए ज़माने की पढ़ी-लिखी समझदार लड़की जिस माहौल में जी रही थी, उसमें कुछ ज़ियादा खोल कर समझाने की ज़रूरत नहीं पड़ती... और फिर माँ भी ऐसी थी जिसने जवान होते ही बेटी को तमाम ऊँच-नीच से आगाह कर दिया था... मर्द कितना भी परचाए-लुभाए, दूर ही दूर से घास डालो... अपने जाल में ऐसा फाँसो कि तड़पे मगर निकलने पाए... कभी अपना आप उसे सौंपने की कोशिश मत करो। एक हिमाक़त जिसका नाम मुहब्बत है, उसमें भूल कर मत पड़ो... हम जिस ज़िंदगी और पेशे में जी रहे हैं, उसमें सिर्फ़ जिस्म ही सब कुछ है, इसकी क़द्र करो कि इसका भाव बढ़े... जिस्म को साबुन समझो जो घिस भी सकता है, वैसे इस साबुन को इस्ति’माल करें तो सदा जूँ का तूँ रह भी सकता है।

    लेकिन ये सारे वा’ज़ और नसीहतें उस दिन बे-असर हो कर रह गए थे, जिस दिन बद-क़िस्मती या ख़ुश-क़िस्मती से जहाँ-आरा बेगम घर से बाहर गई हुई थीं। सह-पहर का सुहाना वक़्त था। चमन-आरा चाँदनी पर नहाकर बाल सुखा रही थी कि किसी आया ने आकर बताया कि कोई साहब मिलने आए हैं। अम्मी जान थीं नहीं, मजबूरन उसी को आना पड़ा। बड़े हाल में आई तो दोनों ही अपनी जगह ठिटक कर रह गए... नीले रंग की शर्ट और नेवी ब्लू पतलून में उलझे बालों वाला एक बे-फ़िक्रा सा लड़का ला-परवाई से खड़ा हुआ था।

    “आप...?”, वो आगे कुछ बोल ही ना सकी।

    वो मुस्कुराया, “जी... मैं...।”

    “लेकिन अम्मी जान बाहर गई हुई हैं...”

    “अजी अम्मी जान को मारिए गोली...” इक-दम वो ठिटका, “मुआ’फ़ कीजिए मेरा मतलब ये नहीं था कि सच-मुच आप अपनी अम्मी जान को गोली मार दें। कुछ आ’दत सी हो गई है गोली चलाने की...”, वो सादगी से हँस पड़ा, “महज़ आ’दतन... वैसे मुझे काम तो आप ही से था...”

    “मुझसे वो बेहद हैरत से अपने सीने पर उँगली टिकाकर बोली, “मैं तो आपसे कभी मिली तक नहीं...”

    “ठीक है नहीं मिलीं... लेकिन...”, वो रुका, “देखिए वो हमारा बावर्ची है ना... अपने किचन में बैठ कर ज़ाफ़रान पीसता है तो पूरे मुहल्ले में ख़ुशबू उड़ जाती है...”

    वो ज़रा शरीर सी हँसी हँसा... “चीज़ अच्छी हो तो आपी आप शुहरत हो जाती है। किसी तआ’रुफ़-वआ’रुफ़ की ज़रूरत नहीं पड़ती... आप गाना गाती हैं ना...?”

    अब तक उसके हवास ज़रा बजा हो चुके थे... मुस्कुराकर बोली, “आपको ग़लत इत्तिला मिली है। गाना गाना तो दूर की बात है, मुझे तो ये तक नहीं मा’लूम कि गाना किसे कहते हैं...”

    “आप चमन-आरा नहीं हैं...”, वो उसके क़रीब आकर बोला।

    “हूँ तो सही...।”

    “तो मैं आपको ये इत्तिला देना चाहता हूँ कि इस वक़्त शहर में सबसे बेहतरीन ग़ज़ल गाने वाली हस्ती आप हैं... और मैं...”, वो अचानक घुटने टेक कर हाथ जोड़ कर उसके सामने खड़ा हो गया, “मैं आपसे ये दरख़्वास्त करता हूँ कि हम चंद लड़के एक बहुत ही अच्छे मक़सद के लिए एक महफ़िल मुनअ’क़िद कर रहे हैं ताकि कुछ रुपया जोड़ सकें। अगर आप इस में दो तीन ग़ज़लें गा सकें तो शायद में आप का ये एहसान ज़िंदगी-भर भूल सकूँगा।”

    चमन-आरा हाँ कह सकी नाँ कह सकी... वो यूँही तस्वीर-ए-हैरत बनी खड़ी रही और वो घुटने टेके उसे हाथ जोड़े देखा किया... अचानक चमन-आरा ने महसूस किया कि अम्मी जान की सारी तालीमात धरी की धरी रह गई हैं और वो ऐसे जाल में कभी निकलने के लिए फँस चुकी है जिसे शायद लोग मुहब्बत कहते हैं...

    “आपने कोई जवाब नहीं दिया...”, बड़ी देर बा’द शायद हज़ारों साल की ख़ामोशी के बा’द वो लड़का बोला था।

    “जी...”, वो हड़बड़ाकर बोली, “इस वक़्त अम्मी जान घर पर नहीं हैं और मैं बग़ैर उनकी इजाज़त के कोई काम नहीं करती... आप मेहरबानी फ़रमाकर फिर कभी तशरीफ़ लाइए...”, और जैसे अपने आपको बचाने की ख़ातिर, उसने फिर पलट कर उसको देखा तक नहीं और अपने कमरे को भाग आई।

    और अब अम्मी जान कह रही हैं कि बेटी मुझे तुम्हारा बुरा-भला ख़ूब समझना है... फिर भी मैंने तुम्हारे लिए एक बात सोची है...? क्या बात हो सकती है...? सिर्फ़ एक ही बात... एक ही बात... पूछने की ज़रूरत भी क्या है? लेकिन मैं...? मैं तो आगे ही बिक चुकी हूँ... उसने ज़रा शरमाकर सोचा... अम्मी जान तो यही कहेंगी कि मैंने तुम्हारे लिए एक अच्छा सा लड़का देख लिया है... और वो शर्म से और भी झुक गई।

    “लेकिन अम्मी जान... मुझे अभी शादी नहीं करनी है...”

    “बे-वक़ूफ़ लड़की... शादी की तुझे क्या सूझी...? और हमारे ख़ानदानों में कहीं शादियाँ हुआ करती हैं... मैं तो तुझे सुना रही थी कि हमारे ख़ान...”

    “अम्मी जान मुझे मा’लूम है, हमारे ख़ानदान की सारी तारीख़, अब्बा जान ने मुझे सब बता दिया है...”, वो तंज़ से बोली।

    “एहे अब्बा जान की सगी... और वो हराम-ज़ादा नक्कटा कहाँ से तेरा बाप बन कर गया... सुन ले हराम-ज़ादी... मैं जो कुछ कहूँ सुन और अमल कर, वर्ना तेरी खाल और मेरी जूती... और ये शादी ब्याह के चोंचले छोड़... यहाँ तो रोज़ दुकान लगती है और रोज़ पैसा मिलता है। ब्याहता बन कर कभी तुझे क्या मिलने वाला है, वही पाबंदी और मजबूरी की ज़िंदगी ना...?”

    “लेकिन अम्मी जान...”, वो हिम्मत बाँध कर बोली, “आप ही ने मुझे ता’लीम दिलवाई और सोचने समझने का हौसला दिया है... मैं गुनाह की ज़िंदगी नहीं गुज़ारना चाहती।”

    उसके तेवर किसी से दबने वाले नज़र आते थे। वो चापलूसी से बोलीं, “एहे बेटी गुनाह को मैं कब कह रही हूँ। सवाब कमाने को भी मैं कब मना कर रही हूँ... अब देख रोज़े तो तू रखती ही है, अपने मज़हब पर चलती भी है। क्या मैं मना करती हूँ...”

    अपने ही सामने की औलाद जवान हो जाए तो उसके सामने भी थोड़ा बहुत तो झुकना ही पड़ता है...

    “अम्मी जान... रोज़ों और ई’द के बारे में मैं नहीं कह रही हूँ...”, वो तन कर बोली, “आप जिस रास्ते पर मुझे चलाना चाह रही हैं वो मैं अच्छी तरह जानती हूँ... मैं ऐसा कोई काम नहीं करूँगी जिसे मेरा जी करना चाहे...”

    “तो सुन ज़िद्दी लड़की... शरीफ़-ज़ादियों और ऊँचे ख़ानदान की तवाइफ़ों की तरह मैंने जागीरदार साहब से तेरी नथ उतारने की बात पक्की कर ली है। रोज़-रोज़ ऐसे लोग नहीं जुड़ते... और फिर ये थोड़ी है कि नथ उतराई के बा’द तू उनकी मनकूहा बीवी हो जाएगी, वो तो नए रास्ते पर चलने की एक शुरू’आत होगी बस, और जिस पर तेरा दिल आया है ऐसों को मैं ख़ूब पहचानती हूँ... रंडी के लिए आँखें तो सब ही बिछाते हैं लेकिन अपने घर के दरवाज़े की कुंडी कोई नहीं खोलता... तू फिर ज़िंदगी-भर झक मारती रह, मुझे पर्वा नहीं... लेकिन मुझे भी तो अपना बुढ़ापा देखना है... मेरे दिन तो गए... तेरे ही सहारे तो अब ज़िंदगी का जुआ खेलना है। तू भी पति-व्रता बन कर बैठ गई तो मैं क्या बुढ़ापे में फ़ाक़े करूँगी।

    आज से दो-तीन दिन बा’द ई’द है। ई’द पर जागीरदार साहब आने को कह गए हैं, उसी दिन तारीख़ पक्की हो जाएगी... अभी तक तूने मेरी मुहब्बत ही मुहब्बत देखी है... नफ़रत और ग़ुस्सा नहीं देखा... देखना है तो इस मरघले को देख ले... इस चेतावनी पर भी तो नामानी तो अपना अंजाम सोच सकती है... मैं जेल में ख़ुशी-ख़ुशी चक्की पीस लूँगी लेकिन छिनाल तुझे ज़िंदा नहीं छोड़ूँगी...”

    कैसी पुर-सुकून ज़िंदगी गुज़र रही थी... वो नीली शर्ट वाला आता ना-मुराद ज़िंदगी तेरा ये हश्र होता... इसके बा’द एक-बार वो आया भी तो ऐसे मौक़े पर जब अम्मी जान मौजूद थीं... शुक्र है उसने कोई ऐसी बात नहीं की जिससे ज़ाहिर होता कि वो पहले भी चुका है। बस किसी जगह गाने की फ़रमाइश अम्मी जान के सामने की और उन्होंने ये कह कर टाल दिया कि “बेटा हम लोग रमज़ान शरीफ़ में गाते बजाते नहीं हैं...”

    मायूसी से चला गया मगर कह गया था... फिर कभी आऊँगा... और ज़ाहिर है वो अम्मी जान के लिए तो आने से रहा... जाते वक़्त कैसी भोली और मा’सूम निगाहों से देख रहा था... मुहब्बत की वो मंज़िलें जो लोग बरसों में नहीं पार कर सकते, हमने महज़ दो मुलाक़ातों में अलांघ लीं। मैं तुम्हारी नहीं हो सकूँगी... शायद कभी नहीं... मगर काश क़िस्मत तुमसे ये कहने का मौक़ा’ ही अ’ता कर सके कि मैंने अब तक सिवाए तुम्हारे किसी को नहीं चाहा और शायद चाह ही सकूँगी।

    और शायद क़िस्मत उस पर मेहरबान थी और ये सब कुछ ऐ’न ई’द ही के दिन तो हुआ। ई’द सही मा’नों में उसके लिए ई’द साबित हुई। ई’द के दिन तो घर आने वालों से, ई’द मिलने वालों से भरा रहता। बड़े हाल कमरे में सब ही आकर बैठते रहे... क़हक़हों और बातों की आवाज़ से चमन-आरा के कान पकते रहे... वो अपने कमरे में उदास बैठी हुई थी कि एक ख़ादिम झिजकते हुए आया और बोला, “छोटी बेगम साहब... आपसे कोई मिलने आए हैं...”

    फ़्लैट के तीन दरवाज़े थे, हर दरवाज़े पर कोई बड़ी बेगम साहब पहरा तो देती नहीं रहती थीं। एक दम चमन-आरा के दिल में उम्मीदों का चाँद-सा रौशन हो गया, “वही तो नहीं...”

    उसने घबराहट और ख़ुशी के जज़्बात को छिपाकर कहा, “कौन है।”

    “वो अपना नाम अनवार बताते हैं...”

    नाम तो उस दिन और दूसरे दिन भी उसने पूछा ही नहीं था... वही होगा, वर्ना मुझसे मिलने तो ख़ास तौर पर कोई आता नहीं... वो इधर-उधर देखकर ज़रा धीरे से बोली, “देखो, पिछले दरवाज़े से ले आओ...”

    थोड़ी ही देर में दरवाज़ा खुला... और वही... हाँ वही खड़ा हुआ था... जाने कहाँ से इतनी बेबाकी चमन-आरा में गई... मुस्कुराकर बोली, “कल अब्र था... मैंने ई’द का चाँद देखने की बहुत कोशिश की थी लेकिन देख पाई थी...!”

    उसने अंदर हो कर दरवाज़ा बंद किया... चटख़नी चढ़ाई और बे-ताबी से तक़रीबन दौड़ता हुआ आया और चमन-आरा से यूँ लिपट गया जैसे बरसों के बिछड़े महबूब मिलते हैं। वो दोनों मुद्दतों यूँही लिपटे खड़े रहे। बड़ी मुश्किल से वो ख़ुद को अलग कर पाया।

    “चमन... मैं... मैं शायद तुम्हारे बग़ैर ज़िंदा रह पाऊँगा... मैं मर जाऊँगा चमन... मैं मर जाऊँगा...”

    “मगर शायद मैं तुम्हारी नहीं हो पाऊँगी अनवर... मेरा सौदा हो चुका है...”

    “सौदा...?”, वो पीछे हटा... “सौदा...? लड़कियों का कहीं सौदा हुआ करता है? लड़कियाँ तो ब्याही जाती हैं बेची नहीं जातीं...”

    “पागल...”, वो हँसी, “तुम इस कोठे पर तीन बार चुके हो... यहाँ तुमने गदीलों पर बिछी चाँदनियाँ नहीं देखें... चाँदी के पानदान, नागरदान और उगालदान नहीं देखे... क़ालीनों पर सजे हुए साज़ नहीं देखे... और कुछ देखा हो या देखा हो, मगर कारनिस पर रखी घुँगरुओं की जोड़ियाँ तो ज़रूर देखी होंगी... अब बताओ फिर भी कुछ समझे या नहीं? सौदे ऐसी ही जगह पर तय होते हैं, तुम भोले हो बहुत भोले...”

    अनवर धीरे से मसहरी की पाएँती से टिक गया। दोनों हाथों में सर थामे हुए... चमन-आरा उसके पास बैठी।

    “तुमने ग़लत जगह दिल लगाया है...”

    “मेरा बाप करोड़पती है...”, वो शिद्दत-ए-जज़्बात से बिफर गया, “वो मुझे चाहता भी बेहद है... तुम्हारी माँ पैसा चाहती है, तो मैं तुम्हें ख़रीदने को भी तैयार हूँ... मैं तुम्हें दुनिया दिखावे को ख़रीद लूँगा मगर फिर शादी करके बा-क़ाएदा दुल्हन बनाकर अपनी बीवी बनाकर घर बसाऊँगा... लेकिन तुम ख़ुदा के लिए हाँ कर दो।”

    “मैं कुछ नहीं कर सकती अनवार... मैं उतनी ही बेबस हूँ जितनी दुनिया की कोई भी मज़लूम लड़की अपनी ज़ालिम माँ के हाथों हो सकती है... मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकती हूँ या नहीं, ये बा’द की बात है लेकिन एक तोहफ़ा तुम्हें ज़रूर दे सकती हूँ। और उसने दीवानगी के जज़्बात के साथ अपने अनछुए और कुँवारे होंट अनवार के काँपते हुए गर्म-गर्म होंटों से चिपका दिए... एक दम अनवार पर पागलपन सा छा गया... उसने तसल्ली की ख़ातिर एक-बार बंद चटख़नी की तरफ़ देखा और फिर बंद-ए-क़बा जवानी के हाथों बेबस होता चला गया।

    कुछ देर बा’द किसी काम से जहाँ-आरा बेगम को बेटी की याद आई तो वो लपकी हुई उसके कमरे को चलीं... मसहरी से लगी आराम कुर्सी पर नादिम नादिम सा अनवार बैठा हुआ था... और पट्टी से लगी चमन-आरा अपनी ख़ुशियों के बोझ से निढाल झुकी-झुकाई... उनकी तजरबाकार आँखों ने एक लम्हे में सब कुछ पढ़ लिया... सबूत के तौर पर वो कुछ और देखना चाहती थीं... सो पुकारा, “चमन... उधर आना ज़रा...”

    चमन-आरा उठी... चली तो यूँ डगमगाती हुई जैसे अब गिरी कि तब गिरी। ये चाल उसी वक़्त बिगड़ती है जब हथेली पर मुड़ा-तुड़ा नोट कड़कड़ाता है... उन्होंने उसकी मुट्ठी खोल कर देखी... ख़ाली थी।

    मुट्ठी ख़ाली थी और हरामज़ादी “भरी” बैठी थी।

    उन्होंने बहुत... बहुत, बहुत ही भलमंसाहट का मुज़ाहिरा किया... या’नी हाथ पकड़ कर अनवार को उठाकर खड़ा किया और रसान से बोलीं, “ख़ाली बंदूक़ दाग़ने वाले तो मैं ज़िंदगी-भर से देखती रही हूँ... जेब में माल-पानी हो तभी पतलून ढीली करनी चाहिए... समझे... अब निकल जाओ यहाँ से...”

    चमन बेद-ए-मजनूँ की तरह थर-थर काँपे जा रही थी। दामाद से निपट कर वो बेटी की तरफ़ मुख़ातिब हुईं, “कुतिया... आज पता चला छिनाल की औलाद छिनाल ही होती है... तू कौन सी सहरे-तोरों की ब्याही पैदावार थी कि सहरों-तोरों का इंतिज़ार करती... अब जो मैं कहूँ उस पर अ’मल करती जा, वर्ना तेरी बोटियाँ नोच-नोच कर चीलों कव्वों को खिला दूँगी...”

    “सुन...”, वो उसकी ठोढ़ी पकड़ कर ऊँची करती हुई बोलीं, “जागीरदार साहब आज भी पिए हुए हैं। भरपूर नशे में हैं... मैं उन्हें यहाँ भिजवाती हूँ, आदमी पिया हुआ हो और बंद कमरे में जवान लड़की साथ हो तो फिर वो कोई वज़ीफ़ा नहीं करता, वही करता है जो मर्द-औ’रत हमेशा करते आए हैं... तो उन्हें सब कुछ कर गुज़रने देना... आगे मैं निपट लूँगी।”

    मेहंदी लगे हाथों में नाज़ुक अँगूठियाँ... जवानी के ख़ुमार से तपता चेहरा... और चेहरे को ढाँपने के लिए मेहंदी लगे हाथ... मेहंदी जिसकी ख़ुशबू ख़ुद ईमान मुतज़लज़ल कर देती है... और उनका पास जाना और मारे नफ़रत के उसका दौर दूर हटना... जिसे ये अदा-ए-दिलबरी समझे... और फिर वही गुनाह... जो अज़ल से अब तक होता रहा है, होता रहेगा... रात के अँधेरे से सुब्ह के उजाले तक और सुब्ह के उजाले से रात की सियाहियों तक... हज़ारों बार का दुहराया हुआ... मगर हर बार नया... मगर उतना ही पुराना...

    दरवाज़ा खुलने पर साहब-ज़ादा क़मर-उल-ज़माँ साहब जागीरदार ने तवक़्क़ो’ के बर-ख़िलाफ़ मंज़र देखा। देखते क्या हैं कि जहाँ-आरा बेगम रूमाल से मुँह ढाँपे रो रही हैं।

    “बात क्या है आख़िर...?”, वो सरासीमा से हो कर बोले।

    “बात क्या होती हुज़ूर... मेरी उ’म्र-भर की कमाई लुट गई... पहली “बोहनी” आपके हाथों होनी थी सवा लाख में... और अब आपने तो आज यूँही।

    वो पुर-सुकून हो कर हँसे, “उफ़्फ़ोह बस इतनी सी बात... भई धूम धड़ाके से तो नथ उतरेगी ही... यक़ीन हो तो इस वक़्त ये सारी अँगूठियाँ रख लीजिए...”, और उन्होंने अपनी मोटी मोटी उँगलियों में से खींच-खींच कर सच्चे हीरों वाली क़ीमती अँगूठीयां उनके क़दमों में ढेर करनी शुरू’ कर दीं। नहीं-नहीं करके भी लाख से कम क्या रही होगी ये सारी अँगूठियाँ... अब नथ उतराई भी हो तो क्या फ़र्क़ पड़ जाएगा... जहाँ-आरा ने ख़ुश हो कर दिल में सोचा।

    डेढ़ माह साफ़ निकल गया... और दिनों बातें साथ ही हुईं... उस दिन सुब्ह पहली बार मुँह धोते में चमन-आरा को उबकाईयाँ आकर क़ै हुई और उसी दिन शाम को जागीरदार साहब अपनी लंबी सी गाड़ी में बैठ कर आए और सुना गए कि “भई कारोबारी मसरूफ़ियत में बात पीछे पड़ गई थी... अगले हफ़्ते नथ उतराई की तक़रीब होगी...”, और उन्होंने पेशगी सवा लाख जहाँ-आरा के क़दमों में डाल दिए और साथ ये भी सुना दिया, “ये तो समझिए चमन का सदक़ा है... हीरों की नथुनी तो हम ख़ुद पहनाएँगे, वो सोने की नथुनी भले ही हम उतार दें... नाक सूनी कैसे रखेंगे... जिस नाक में हीरे की नथुनी या लौंग हो उस नाक के नख़रे ही क्या...?”

    मुक़र्ररा तारीख़ पर एक ऐसी यादगार तक़रीब जुड़ी कि देखने वालों की आँखें ख़ीरा हो गईं... क्या किसी की बरात इतनी शानदार होगी... जागीरदार साहब कई मोटरों की बरात ले आए... चमन-आरा को अपनी लंबी सी गाड़ी में अपने साथ ही बिठाया... जहाँ-आरा बेगम को भी इस ख़ास तक़रीब के लिए अपने ही साथ मदऊ’ किया... और पूरे कर्र-ओ-फ़र्र के साथ अपनी जगमगाती कोठी पर पहुँच गए।

    जहाँ-आरा बेगम को ख़ुशी यूँ थी कि जवानी का अव्वलीन तर-ओ-ताज़ा और मीठा मीठा रस जो वो हराम-ज़ादा पहले ही पी गया था, जागीरदार साहब पर एक राज़ ही रहा, और वो ये समझते रहे कि इस कुँवारे खेत में पहली-पहल काश्त मैंने ही की... और दूसरी इससे भी ज़ियादा अहम ख़ुशी ये थी कि बिटिया रानी हमल से भी थीं... मगर अब ये किस को पता कि एक ही घंटे के वक़्फ़े से जो दो-दो हल चलाए गए हैं तो सहरा किसके सर बँधेगा कि किस का बीज है, अच्छा हुआ जागीरदार साहब के सर ही बला जाएगी... वैसे तो हाथ की बात है जी चाहे रखूँगी, जी चाहे ठंडा गर्म पिलाकर पेट साफ़ करा दूँगी।

    सुब्ह का इंतिज़ार अम्मी जान को अस्ल में यूँ था कि देखें बिटिया रानी को जागीरदार साहब क्या तोहफ़ा देते हैं? शानदार कोठी के शानदार-तरीन बेडरूम से मुल्हिक़ गार्डन में सुब्ह-सवेरे जब अम्माँ-जान बेटी से बात करने पहुँची तो ये देखकर उनका जी जल गया कि बेटी तो गहने-पातों से लदी हुई है मगर सामने वही ना-मुराद खड़ा दाँतों में ब्रश कर रहा है।

    “तुम... तुम यहाँ कैसे...?”, वो ज़रा तेज़ी से बोलीं। अब चमन-आरा ने भी घूँघट हटाकर उसे देखा और चकरा गई... बिल्कुल ही चकरा गई... वो तो अनवार था... सूफ़ी सद अनवार...।

    “मियाँ मैं पूछती हूँ तुम यहाँ कैसे आए...”

    वो हँसा, “मैं अपने घर में हूँ भाई... अपने बाप के घर में। अपने घर में होना गुनाह है क्या?” कॉलेज के टूर पे गया हुआ था... रात ही तो वापिस आया हूँ...”, और उसी लम्हे उसकी नज़र चमन पर पड़ी... वो चकरा उठा

    सौदा...? सौदा...? सौदा...?

    चमन ने उसे देखा और पागलों के से अंदाज़ से चिल्ला-चिल्लाकर हँसने लगी

    “अम्मी जान... ज़रा एक रिश्ता मुझे समझा दीजिए। ये बच्चा जो मेरे पेट में है, मेरा बेटा भी हो सकता है... और शायद मेरा पोता भी... है अम्मी जान। हो सकता है और भी कई रिश्ते, रिश्तों से निकल आएँ तो मैं अम्मी जान... मैं ख़ुद अपनी बहू भी हुई और अपनी सास भी... क्यों कि अम्मी जान आपकी इ’नायत की वज्ह से बाप बेटे एक ही थाली में खाकर गए हैं... अम्मी जान ज़रा रिश्ता तो समझ लीजिए... फिर मुझे समझा...” और एक दम वो चीख़ते चीख़ते बेहोश हो गई...।

    हड़बोंग सुनकर जागीरदार साहब बाहर निकल आए।

    “अरे भई क्या हो रहा है...”, वो चिल्लाए... माँ के हाथों में बेटी को यूँ देखा तो हैरान हो कर बोले, “इसे क्या हुआ... अरे मैं पूछता हूँ चमन को क्या हुआ...”

    जहाँआरा बेगम ने बड़ी अदा से सर उठाकर जवाब दिया, “ए हुज़ूर मुझसे क्या पूछते हैं... ऐसी भी क्या जवानी कि फूल सी बच्ची को रात-भर में झूला-झूला बना दिया, और ऊपर से ये सवाल कि क्या हुआ...?”

    अपनी लंगड़ी जवानी के सर ऐसा शानदार सहरा बंधते देख वो खिल-खिला उठे और मुस्कुरा-मुस्करा कर सौ-सौ के मुट्ठी भर-भर नोट अपनी जेबों से निकाल कर जहाँ-आरा के सामने ढेर करते गए।

    स्रोत:

    Nath Utrai (Pg. 14)

    • लेखक: वाजिदा तबस्सुम
      • प्रकाशक: शमा बुक डिपो, नई दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1981

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