Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

नूर-ओ-नार

MORE BYअली अब्बास हुसैनी

    स्टोरीलाइन

    अच्छे-बुरे की प्रतिस्पर्धा और आतंरिक परिवर्तन इस कहानी का विषय है। मौलाना इजतबा अपने दारोग़ा दामाद का जनाज़ा पढ़ाने से सिर्फ़ इसलिए मना कर देते हैं कि वो शराबी, बलात्कारी था और उनकी बेटी ज़किया के ज़ेवर तक बेच खाए थे। उसी ग़ुस्से की हालत में इत्तिफ़ाक़ से उनके हाथ ज़किया की डायरी लग जाती है, जिसमें उसने बहुत सादगी से अपने शौहर से ताल्लुक़ात के नौईयत को बयान किया था और हर मौक़े पर शौहर की तरफ़दारी और हिमायत की थी। उसमें उसके ज़ेवर चुराने के वाक़ीआ का भी ज़िक्र था जिसके बाद से अज़हर एक दम से बदल गया था। माफ़ी तलाफ़ी के बाद वो हर वक़्त ज़किया का ख़्याल रखता, तपेदिक़ की वजह से ज़किया चाहती थी कि वो उसके क़रीब न आए लेकिन अज़हर नहीं मानता था। मौलाना ये पढ़ कर डायरी बंद कर देते हैं और जा कर नमाज़ जनाज़ा पढ़ा देते हैं।

    आप जो जी चाहे समझें! गाँव वाले जो दिल में आए कहें! मगर मैं उस पाजी की नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ाऊँगा! हरगिज़ हरगिज़ पढ़ाऊँगा! मेरा दामाद सही, मगर था तो वो ज़ानी, शराबी और जुआरी! मौलाना इज्तबा ने समधी को ड्योढ़ी में खड़े-खड़े जवाब दिया और घर का दरवाज़ा धड़ाक से बंद कर लिया। इस धड़ाक ने गोया मौलाना के जवाब पर मुहर लगा दी। अब उसपर नज़र-ए-सानी की कोई उम्मीद नहीं रह गई। समधी ने हसरत से बंद दरवाज़े को देखा और आँखों में आँसू भरे गर्दन झुकाए निकल गए।

    मौलाना इज्तबा के लिए भी ये फ़ैसला कोई आसान अमर था। अपने ही दामाद के जनाज़ा पर नमाज़ पढ़ाने से इनकार और वो भी ऐसी हालत में जबकि आस-पास के किसी गाँव में नमाज़ पढ़ाने वाला हो, अख़लाक़, मुरव्वत, इंसानियत, अज़ीज़-दारी, बिरादरी की तमाम रिवायतों के ख़िलाफ़ था। मगर क्या करें, ख़ुदा के सामने खड़े हो कर कैसे कहें कि इस मुर्दे के बारे में अच्छाइयों के अलावा हम कुछ नहीं जानते। वो अपने दामाद के करतूतों से वाक़िफ़ थे, वह गाँव वालों को गवाह बना कर ऐसा सफ़ेद झूट तो नहीं बोल सकते थे।

    सबही तो जानते थे अज़हर को। पुलिस का दारोग़ा, रिश्वत, बेइमानी, झूट, शराब, जुआ, अय्याशी। कौन सा ऐब था जो उसमें था और फिर समधी साहब की ये ख़्वाहिश कि उसी पाजी अज़हर की नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ा दो! गोया उसकी सारी बुराइयों से मुकर और महज़ अच्छाइयों का इक़रार करो! ख़ुदा के सामने दीदा दिलेरी से झूट बोलो! हुंह! मौलाना का लम्बोत्रा चेहरा सुर्ख़ था। इनकी दाढ़ी के सफ़ेद बाल खड़े थे और उनका छरेरा जिस्म, जो एक छड़ी की मूठ की तरह आगे से झुका था, इस वक़्त काँप रहा था। वो समधी को मायूस जाते देख कर दरवाज़े की कुंडी बंद करके पाँव पटकते अंदर चले आए।

    उनका घर बहुत बड़ा था। छोटा सा कच्चा सेहन, उत्तर रुख़ के दालान अंदर  दालान, पच्छिम तरफ़ बावर्चीख़ाना, और पूरब जानिब दो कोठरियाँ। दकन की तरफ़ कोई इमारत थी। दिवार से मिली हुई ज़मीन को दो फ़ुट की लम्बान चौड़ान में गोड़ कर धनिया और पुदीने लगा रखा था। उसी मज़रूआ के पास काठ की घड़ौंची दो मिट्टी के घड़े कटोरों से ढके रहते थे और एक छोटी सी चौकी पर दो तांबे के बदक़लई जगह-जगह से पिचके हुए लोटे। बाहरी दालान में तख़्तों के चौके पर छपा हुआ फ़र्श बिछा था, जिसपर दिवार से लगा हुआ एक गाव था। मैला चिकट, दोनों पहलुओं से रूई के फोंसड़े झाँकते हुए। गाव की बग़ल में दरी की एक जा-नमाज़ थी और औराद-ओ-वज़ाइफ़ की कुछ किताबें और एक काठ का फ़ैज़ाबादी क़लमदान।

    अंदर वाले दालान में एक पलंग बिछा था। उसका बाँध जगह-जगह से मजरूह था और उसकी अदवाइन हर बालिश्त पर गिरहदार। उसी के सिरहाने पुरानी दरी में लिपटा हुआ मौलाना का बिस्तर रखा था। वहीं एक कोने में अलगनी पर एक तहमद लटकती थी, एक पैवंद लगी क़बा और एक बड़ी मोहरी का मारकीन का पाएजामा। पलंग से मिली हुई एक तिपाई पर एक फ़ैज़ाबादी ज़ेवर रखने वाला संदूक़ रखा था, जिसपर जुज़दान में लिपटी चंद किताबें थीं और सबसे ऊपर क़ुरान!

    मौलाना दालान वाले तख़्त पर इस तरह आकर बैठे कि उसका जोड़-जोड़ बोलने लगा, मगर उन्होंने इसकी फ़रियाद पर ध्यान दिया। उन्हें उस वक़्त ग़ुस्से में कुछ सुनाई देता था। मरने वाला, उनकी इकलौती लड़की ज़किया का शौहर था। वो कोई ग़ैर था। वो अपना ही था, इसीलिए तो उन्हें उसकी सारी हरकतों की ख़बर थी। रहीमन ने उन्हें एक-एक बात बता दी थी। वो कभी भी उस बदमाश अज़हर को माफ़ नहीं कर सकते थे। उसने उनकी ज़किया को तरह-तरह के दुख पहुंचाए। उसके सीने पर मूंग दली। उसके होते रंडी घर में बिठाई। शराब पी, जुआ खेला और अपनी ही पूँजी नहीं बल्कि ज़किया के सारे ज़ेवर भी चोरों की तरह चुराकर जुए में हार दिए। उन्हीं ज़ुल्मों ने तो ज़किया को बीमार डाल कर ऐन जवानी में दिक़ का शिकार बना दिया, और ज़किया के मरने ने मौलाना को क़ब्ल-अज़-वक़्त बूढ़ा कर दिया, झुका दिया, बालों से सियाही, आँखों से नूर छीन लिया।

    ज़किया ही तो उनकी सब कुछ थी। सारी पूँजी, सारी ख़ुशी, सारी उम्मीदें, फ़क़ीर के घर का दीया, उसकी ज़िंदगी का उजाला। ज़किया के बाद उनकी ज़िंदगी क्या थी, बिल्कुल एक भूल भुलय्याँ कि भटकते फिरो, सिरे का पता, मंज़िल की ख़बर। रास्ते में जलता चराग़ रौशन मशाल, छिटकी चाँदनी, जगमगाती किरन! बस एक हड्डियाँ ठिठुराने वाली ठंडक और घोर अंधेरा!

    और मौलाना उठकर खड़े हो गए। उनका ख़ून खौल रहा था, उनके दिल में जाने कितनी मर्तबा ये ख़्याल पैदा हुआ था कि वो उस मरदूद अज़हर से अपनी ज़किया का बदला ज़रूर लें, उसे किसी मौक़े पर पूरे गाँव के सामने ज़लील-ओ-रुसवा करें। अफ़सोस कि उसकी बीमारी और मौत ने इसका मौक़ा दिया। लेकिन आज जबकि ये काँटा टूट कर हमेशा के लिए पहलू में खटकता रह गया, समधी साहब इसरार कर रहे हैं कि उसी अज़हर की नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ाओ, और सबके सामने झूट बोलो कि ये नेक था, अच्छा था और उसने ज़िन्दगी भर नेकी और भलाई ही की है। इसकी सफ़ाई ख़ुदा के सामने पेश करो जो अपनी ज़किया का क़ातिल था। और उनकी आँखों में ज़किया की सूरत फिरने लगी।

    वो उसका बूटा सा क़द, वो उसका दुबला पतला जिस्म, वो उसके छोटे-छोटे हाथ-पाँव और वो उसका मुस्कुराता चेहरा! अजब दिल पाया था उस बच्ची ने। उसे खाने की फ़िक्र पहनने की। पैसे हों या हों, हर हालत में ख़ुश। तरकारी गोश्त पका हो, रोटी चटनी ही सही। एक ही वक़्त खाना मिले कोई उज़्र नहीं। नौकरानी घर में हुई तो उसका हर काम में हाथ बटाती रही, हुई सारा काम ख़ुद कर डाला। जब बाप के सामने दस्तरख़्वान लगाती तो इस अंदाज़ से खिलाती और खाती कि मालूम होता सिर्फ़ दाल रोटी ही सामने नहीं है बल्कि अन्वाअ इक़्साम की नेअमतें दस्तरख़्वान पर चुनी हैं। और मौलाना के लिए हर निवाला लज़ीज़ से लज़ीज़ तर बन जाता। वो ख़ुश होकर कहते,ज़किया तू यक़ीनी जन्नती हूर है। और वो बड़ी सादगी से कहती, अब्बा जान, मैं ऐसी ख़ुशक़िस्मत कहाँ। पर ख़ुदा का शुक्र ज़रूर अदा करती हूँ कि आपको मेरी पकाई हुई हर चीज़ पसंद आती है।

    और मौलाना अपनी तरबियत-ओ-तालीम पर ख़ुद अश-अश करने लगते। वो सोचते थे दिमाग़ और दिल में फ़र्क़ ज़रूर है। उन्होंने मज़हब को दिमाग़ के ज़रिए समझा था। उनकी किताबों में यही लिखा था, उनको तालीम भी दी गई थी और उनकी फ़िक्र भी यही कहती थी, इसलिए मजबूरन मज़हबी अहकाम मानो। मगर दिल ने हमेशा बग़ावत की। जौ की रोटी में वो मज़ा कैसे हो सकता है जो शीरमालों में है। सादे चावल इतने ख़ुश ज़ायक़ा कैसे हो सकते हैं जैसी कि बिरयानी होती है। मारकीन और गाढ़े के पहनने में जिस्म को वो आराम कहाँ मिल सकता है जो मख़मल और रेशम में है। ख़ुद अपने हाथ से घर की सफ़ाई करने और खाना पकाने में वो राहत कहाँ जो मामा दाइयों से काम लेने में है। लेकिन ज़किया ने मौलाना ही की ज़बानी सुनी सुनाई बातों को दिल में गिरह कर रखा था, उसने मज़हबी अहकाम को इस तरह अपनाया था कि वो उसकी तबियत, उसका मिज़ाज़ बन गए थे। वो उन्हीं के साँचे में ढल गई थी। महसूस होता कि मज़हब की रूह ने ज़किया की सूरत में जन्म लिया है।

    इस तरह की बच्ची और ब्याह दी गई अज़हर जैसे रिंद लामज़हब से। अज़ीज़ों ने इसरार किया था खाता-पीता घर है, लड़का कमाता है। पुलिस का दारोग़ा है, ख़ुश मिज़ाज है, जाना बूझा है, ज़किया को ख़ुश रखेगा... मगर... मगर...! और मौलाना पिंजरे में बंद शेर की तरह टहलने लगे। उनकी नज़रें अपने ग़ुस्से का शिकार ढूंढ रही थीं। कोई ऐसी चीज़ जिसे तोड़ फोड़ कर, जिसे फाड़ कर, जिला कर अपने दिल का बुख़ार निकाल सकें और उनकी नज़र उन चीज़ों पर जाकर रुकी जो अज़हर ने अपनी ज़िंदगी से मायूस होने पर ज़किया की यादगार के तौर पर उनके पास भेज दी थीं। काठ का संदूक़, जहेज़ में दी हुई वज़ाइफ़ की किताबें और जुज़दान में लिपटा हुआ क़ुरान। जबसे ये चीज़ें आई थीं मौलाना ने उन्हें खोल कर देखा था कि उनमें क्या रखा है।

    वो तेज़ क़दम रखते हुए उन चीज़ों के क़रीब गए और उन्होंने काँपते हुए हाथों से क़ुरान उठा कर बिस्तर पर रखा। फिर उन्होंने औराद-ओ-वज़ाइफ़ की किताबें उठा कर एक-एक को देखना शुरू किया। एक किताब के आख़िर में चंद सफ़्हे सादे लगे थे। उनपर ज़किया के हाथ की तहरीर दिखाई दी। मालूम हुआ कि आँखों में सुइयाँ सी चुभने लगीं। मौलाना ने तकलीफ़ से आँखें बंद कर लीं, लेकिन उनकी सूखी उंगलियाँ मुड़े हुए काग़ज़ के कोने उसी तरह दुरुस्त करती रहीं जिस तरह माँ सोते हुए बच्चे की ज़ुल्फ़ें सँवारती है और ख़ुद उनका जिस्म इस तरह हिलता रहा जैसे वो पालने में किसी को झूला झुला रहे हैं। फिर उन्होंने सीने में खटकती एक साँस लेकर आँखें खोलीं और वो ज़किया की तहरीरें पढ़ने लगे।

    मेरे निकाह को आज तीसरा दिन है। समझ में नहीं आता कि किसी को जिस्मानी अज़ीयत पहुँचाने में अपने को ख़ुशी कैसे महसूस होती है और लोग इस तक़रीब को शादी क्यों कहते हैं?

    मेरे सरताज नौकरी पर गए। मुझे मालूम हो सका, उन्हें क्या पसंद है, क्या नापसंद। मैं पहले ही दिन से बराबर दुआ कर रही हूँ कि ख़ुदा मुझे इन्हीं की पसंद का बना दे! ख़्वाह इसमें मुझे कितनी ही अज़ीयत पहुँचे।

    लोग सास-ननदों को बुरा कहते हैं। मेरी सास-ननदें तो मुझसे इस क़दर मोहब्बत करती हैं कि छोटे से छोटा काम भी वो मुझ ही से लेना चाहती हैं।

    अब्बा जान को आज कल खाना कौन खिलाता होगा? कल्लो शाम ही को चली जाती होगी और वो खाते हैं रात गए। उन्हें गर्म रोटियाँ कैसे मिलती होंगी? कुछ नहीं, उन्हें चाहिए कि वो अपना दूसरा निकाह कर लें। बेटी हो तो बीवी ज़रूर होना चाहिए!

    मौलाना ने रुककर एक लम्बी साँस फिर ली। वो थोड़ी देर फ़िज़ा में घूरते रहे। फिर उन्होंने डायरी के कई वरक़ सरसरी नज़र डाल कर पलट दिए। शुरू-शुरू में दो दो,चार-चार जुमलों में बात कह दी जाती थी। अब पूरे-पूरे सफ़्हे रंगे मिलने लगे। गोया इब्तिदा में ज़िंदगी के किनारे पर पैराकी की मश्क़ की जाती थी। पैरने वाली दो-चार हाथ मारती और थक कर पलट आती। मगर अब वो ज़िंदगी की गंगा में भरपूर उतर गई थी। धारे के ख़िलाफ़ बहुत दूर तक पैरती हुई जाती मगर हिम्मत के बाज़ू शल होते। मौलाना की नज़र दफ़्अतन ठिटकी। उसने लिखा था,

    रहीमन को और मुझे चचा जान थाने पर पहुँचा गए। मेरे सरताज ने हमारी बिल्कुल उसी तरह पज़ीराई की जिस तरह कोई अमीर किसी बड़ी दावत में पोलाव क़ोरमा  खाने के बाद किसी ग़रीब अज़ीज़ के हाँ से ठंडी पूरियों का हिस्सा उतारता है। वापस भी नहीं की जाती हैं, खाई भी नहीं जाती हैं, बस किसी छींके पर डाल दी जाती हैं कि पड़ी सूखें। अम्मो जान चंद घंटे बाद चले गए। वो भला भतीजी की ससुराल में कैसे टिक सकते थे। उनको मेरी ख़ुशी से ज़्यादा अपने देहात के रिवाज का ख़्याल था। अब ये जो चचा जान को स्टेशन भेजने गए तो दस बजे रात तक पलटे। जाने कौन सा काम निकल आया। रहीमन सफ़र के तकान से चूर थी। मैंने उसे खिला पिला कर सुला दिया। मगर ख़ुद अँगेठियों पर पतीलियाँ रखे बैठी रही। जब साढ़े दस बजे अंदर आए तो मुझे पतीलियों के पास अकेले बैठे देखा मगर कुछ बोले नहीं। मैंने गर्म-गर्म खाना सामने रखा तो पूछा, तुमने खाया? मैंने कहा, मैं आप के पहले कैसे खा लेती? जवाब में उन्होंने अजीब बात कही, मैं ख़ाक समझी। वो बोले, अच्छा, ये रंग हैं भई, ये रंग!

    रहीमन दीन ईमान की बातों से बहुत कम वाक़िफ़ है। आज मुझे उसे टोक कर कई बातें बताना पड़ीं... बाहर कुछ शोर सा हो रहा था, वो झट बावर्चीख़ाने से निकल दरवाज़ा खोल कर झाँकने लगी। मैंने कहा, रहीमन बाहर झाँको, झाँकने ताकने को बुरा कहा गया है। वो बोली, बेटा, तुमने तो आँखें होते उन्हें बंद कर रखा है। अब क्या मैं भी तुम्हारी जैसी हो जाऊँ, कुछ देखूँ। मैंने कहा, बुआ, मेरी आँखें जो कुछ देखने के लिए बनी हैं वो मैं सब देखती हूँ। ख़ुद बनाने वाले ने हुक्म दिया है उन चीज़ों को मत देखो जो दूसरा छुपाना चाहता है। झाँकने वाला कभी अच्छी चीज़ नहीं देखता। नेकी डंके की चोट की जाती है, बदी हमेशा ओट में की जाती है। तुम झाँक कर देखोगी तो कभी ख़ुश होगी!

    रहीमन मेरी बातें तो पी गई और उसने अपनी मशक का दहाना खोल दिया,बीबी, तुम झाँको ताको, देखो सुनो, टोको बोलो और मियाँ हैं कि उलट कर पूछते भी नहीं! मुझे रहीमन का ये ताना बहुत बुरा लगा। मर्द अगर हर वक़्त बीवी ही का मुँह देखेगा तो वो दुनिया में काम कर चुका। मैं उनको इस तरह का 'बेकार ' आदमी नहीं देखना चाहती थी। उनको दस कोस के हलक़े में मुजरिमों की देख-भाल करना पड़ती, मुक़दमों, फ़ौजदारियों, चोरियों, डाकुओं में तफ़तीश करना पड़ती। बारह घंटे, सोलह घंटे वर्दी पहने, पेटी कसे ड्यूटी देना पड़ती। भला ऐसे में वो हर वक़्त मेरे पास कहाँ बैठे रहते, इसलिए मैंने ज़रा तीखेपन से कहा,बुआ, मुझे मालूम नहीं कि दूसरे शौहर अपनी बीवी के साथ किस तरह का सुलूक करते हैं। मैं तो जानती हूँ कि जैसा एक मियाँ को होना चाहिए वैसे ही वो भी हैं। मैंने इसके पहले कोई ब्याह नहीं किया कि मुझे शौहर के बर्ताव के मुतअल्लिक़ कोई तजरबा हो।

    मैं ये भूल गई थी कि रहीमन उस वक़्त तक चार निकाह कर चुकी थी और अब चूंडा पकने पर भी पांचवें की ताक में थी। मैंने सादा दिली से एक हक़ीक़त बयान कर दी थी, लेकिन ऐसा मालूम हुआ कि जैसे रहीमन के मिर्चें सी लग गईं। वो तिलमिलाकर बोली,ए है भोली बीबी! इतना तो आप भी जानती ही होंगी कि बीवी के रहते सहते रंडी नहीं रखी जाती, जो आपके मियाँ छम्मी जान को गले का हार बनाए जगह-जगह लिए फिरते हैं। जाने वो क्या समझती थी कि छम्मी जान का नाम ले कर वह मुझे आपे से बाहर कर देगी, या मैं सौकन के ज़िक्र से बदहवास हो जाऊँगी, बेहोश होकर गिर पड़ूँगी। इसलिए कि उसने ये फ़िक़रा कह कर मुझे इस तरह घूर कर देखा जैसे उसने बड़ा तीर मारा। मैं सच कहूँ मुझपर कोई असर नहीं हुआ। मैंने कहा,एक तो सुनी सुनाई बातों पर यक़ीन करना चाहिए। सही वही चीज़ है जो अपनी आँख से देखी जाए। सो तुमने देखा मैं...

    वो भौचक्की हो कर मेरा मुँह देखने लगी। मैंने कहा,बुआ इसमें ताज्जुब की कौन सी बात है। ख़ुदा रसूल का हुक्म भी है कि अगर किसी पर तोहमत धरी जाए तो उसपर यक़ीन करो। फिर मैं कहती हूँ अगर ये सच भी है तो उन्होंने छम्मी जान से निकाह कर लिया होगा। इख़्तियार होते वो गुनाह क्यों करने लगे! रहीमन सर हिलाती बावर्चीख़ाने में चली गई। वहाँ बैठकर माथे पर हाथ मारकर बोली,बीवी मैं तुमसे हार गई! मैं कुछ समझी कि मैंने इसमें हार जीत वाली बात कौन सी कही। मैंने वही कहा जो मज़हब का हुक्म है। ख़ैर, मुझे ख़ुशी हुई कि मैंने रहीमन को आज कुछ दीन-ओ-ईमान की बातें बता दीं।

    आज अजीब वाक़िआ हुआ। कोई ग्यारह बजे रात को दो सिपाही उन्हें सँभाले हुए ड्योढ़ी पर लाए। रहीमन को आवाज़ दी पर्दा करवाओ, दारोग़ा जी को अंदर लाएं। दिल धड़कने लगा। या अल्लाह क्या बात हुई जो आज सिपाही उनको अंदर ला रहे हैं, कहीं चोट खाई, किसी बीमारी से बेहोश हैं, क्या बात है। किससे पुछवाऊँ, क्या करूँ। रहीमन टाँग पसारेख़र्राटे ले रही थी। उसके सर पर कोई ढोल भी पीटता तो उसको ख़बर होती। मजबूरन ख़ुद उठी, बुर्क़ा ओढ़ कर ख़ुद कुंडी खोल दी। वो लोग जब उन्हें पलंग पर लिटाकर चले गए तो मैंने आकर देखा। सारे कपड़े पहने बेहोश से पड़े हैं। ये हालत देखते ही कलेजा मुँह को आने लगा। मैंने चाहा झुक कर उनकी अचकन के बटन खोल कर उसे उतार दूँ तो उनके खुले मुँह से ऐसी बू आई कि सर चकराने लगा। मैंने साँस रोक कर अचकन उतारी और जूता मोज़ा उतारा, पिंडा छू कर देखा गर्म था, दिल की हरकत भी ठीक थी, हाँ नब्ज़ अलबत्ता कुछ तेज़ चल रही थी।

    कुछ समझ में आया कि कौन सी बीमारी है। फिर ख़ुद ही ख़्याल आया कि अगर कोई ख़दशे ख़तरे की बात होती तो सिपाही ज़रूर डॉक्टर हकीम को बुलाते। फिर भी मैं रेहल पर से अपना क़ुरान उठा लाई और मैंने उसके पाक वरक़ों की उन्हें हवा दी और तोहफ़ तुल अवाम में जितनी दुआएं बीमारियों की लिखी हैं, वो सब पढ़कर उनपर दम कर डालीं। लेकिन बदबू से मेरा सर फटने लगा। मैंने सोचा इन बेचारे की क्या हालत होगी जो इस वक़्त बीमार भी हैं। इसलिए मैंने उनके सर में बहुत सा रेडी क्लोन लगा दिया और उनके कपड़ों में, तकियों में, चादरों में पूरी शीशी इत्र पोत डाला। रात भर मैं जागती रही। आँखों से नींद उड़ गई थी। जाने कैसे-कैसे बुरे ख़्यालात आते थे। बार-बार दिल को ढारस बँधाती रही कि अल्लाह मौजूद है। उसकी मर्ज़ी के बग़ैर पत्ता नहीं हिल सकता। वो जो कुछ करेगा बेहतर ही होगा।

    सुबह को जब वो उठे तो बड़ी देर तक अंगड़ाई ले लेकर जिस्म तोड़ते रहे। मैंने चाहा हाथ-पाँव दबा दूँ, कसल दूर हो जाए। मगर उन्होंने हाथ रखते ही उसे अलग करके कहा,क्या दर्द और बढ़ाना चाहती हो? मैं भौचक्का सी हो गई। मेरी सास ने हर शाम पिंडलियाँ दबवाते वक़्त कहा,जीती रहो बेटी, जहाँ तुम हाथ लगाती हो जिस्म का दर्द काफ़ूर हो जाता है। वो और जेठानियाँ, ननदें सब ही तो मेरे हाथ की नर्मी, सुबकी और सफ़ाई की तारीफ़ें करती हैं। मगर उन सबकी पसंद बेकार। जिसकी ख़िदमत के लिए ये हाथ बने हैं उनको तो नहीं भाते। उनके जिस्म का दर्द तो उनसे बढ़ता है! मगर क़ब्ल इसके कि मैं कुछ कह सकूं वो उठ कर बाहर चल दिए।

    जाते वक़्त जब वो रहीमन के पास से गुज़रे तो उसने उनकी तरफ़ घूर कर कहा, दूल्हा मियाँ शर्म तो नहीं आती! और उन्होंने उसकी बदतमीज़ी पर उसे डाँटा, फटकारा बल्कि सर और नेहोड़ा लिया। मेरा जी चाहा मैं रहीमन से पूछूँ कि ये काहे की शर्म दिलाई जा रही है। उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे! ख़ुद तो रात भर पड़ी सोती रहीं। उनके दुश्मनों की कैसी तो हालत थी, कैसे बेसुद्ध पड़े रहे, दीन की ख़बर, दुनिया की। और इस वक़्त अपनी बेपरवाई पर शर्माने की जगह उनको शर्म दिलाने लगीं। लेकिन फ़ौरन ख़्याल आया, होगा इन दोनों के दरमियान कोई मामला, नहीं तो वो यूँ चुप साधे क्यों चले जाते। इसलिए मैंने ज़बान रोक ली। मुझे किसी के बीच में बोलने का क्या हक़ था?

    आज दीवाली की रात है। शाम से चारों तरफ़ मकानों पर दीए जल रहे हैं। हमारे हाँ थाने पर भी चराग़ा है। मर्दाने में बहुत से लोग आए हैं। सुनती हूँ कि आस-पास के बड़े-बड़े ज़मींदार भी इकट्ठा हैं। आज बड़े खेल तमाशे होंगे।

    मुझे सुबह ही हुक्म मिला था। आज दावत के खाने पकेंगे। मैंने रहीमन के साथ मिल कर कोई बीसियों तरह की चीज़ें तैयार कर दी हैं। मुर्ग़ मुसल्लम, शामी कबाब, गोले, सीख़, पोलाव, ज़र्दा, क़ोरमा, क़लिया, मछली का क़ोरमा, मछली के कबाब, झली  हुई रोटियाँ, पूरियाँ, पराठे, बाक़रख़ानी, बादाम का हलवा, पिसते की लोज़ीं, शाही टुकड़े, शकरक़ंद की खीर, तरकारियों में आलू, गोभी, भिंडी, शलजम, टमाटर, पलवल जो इस देहात में मिल सका है या शहर से सका है, सब कुछ पका डाला है। क्या मालूम कि उनके दोस्तों को क्या पसंद है। अब फ़िक्र है तो यही कि इन तमाम नेअमतों में उनको भी कोई चीज़ पसंद आती है या नहीं। अब्बा जान को मेरी पकाई हुई दाल रोटी में भी मज़ा आता था। ख़ुदा मेहनत सुआरत करे और वो भी एक आध चीज़ें चटख़ारे लेकर खाएं!

    मैं ये लिख ही रही थी कि रहीमन चीख़ी। मैं दौड़ी कि क्या आफ़त आई। वो सेहन में खड़ी कोस रही थी,मुओं का हियाव तो देखो, पुलिस वालों का थाना है, सैकड़ों आदमी बाहर का भी मौजूद है, रात के अभी ग्यारह बजे हैं और अभी से लगे ढेले फेंकने। मैंने कहा,कौन ढेला फेंक रहा है? वो बोली, चोर!

    मुझे हँसी गई। इस बुढ़िया की भी कैसी मत मारी गई है। भला हमारे हाँ थाने में चोरों का क्या गुज़र? माना कि मैं जिस मकान में रहती हूँ उसके पीछे खेत ही खेत हैं और उधर की दिवार भी कच्ची और नीची है मगर सब जानते हैं कि ये मकान थाने ही का हिस्सा है और वहाँ चोर पकड़ने वाले रहते हैं, चोरी कराने वाले नहीं रहते। भला कैसे किसी चोर की हिम्मत पड़ सकती है कि ढेले फेंके या हमारे हाँ सेंद लगाए। मगर रहीमन का इसरार है कि ढेले चोरों ही ने फेंके हैं।

    उसने कहा,अरे बीबी, तुम क्या जानो, दीवाली में चोर भी अपने-अपने देवता जगाते हैं। अगर आज की रात वो चोरी करने में कामयाब हो जाएं तो फिर साल भर जिस-जिस को चाहें मूस लें, कोई उनका बाल बाँका नहीं कर सकता। मुझे यक़ीन नहीं आता कि चोर भी देवी-देवताओं को मानता होगा। अगर उसे उनपर यक़ीन होता तो वो चोरी ही क्यों करता। अरे जिसने पैदा किया है वो तो हर जगह है और सब कुछ देखता है। फिर उससे कोई छुप कर कहाँ चोरी करेगा और चोरी करके जाएगा कहाँ? किसी और ने कोई जगह बना रखी है जहाँ उसे पनाह मिलेगी? मैं जब इन बातों को सोचती हूँ तो मुझे हँसी जाती है। दुनिया के चूँडे पक गए मगर इसमें रहने बसने वाले अब भी बच्चे ही हैं और बच्चों ही जैसी हरकतें करते हैं।

    उनकी भी अजीब बातें होती हैं। जैसे मैं उनसे भी अपने रूपये, पैसे गहने पाते अज़ीज़ रखती हूँ। जो कुछ है वो उन्हीं का तो है। मेरे बक्स में रखे होने से क्या होता है। जब मैं उनकी, मेरी जान उनकी, मेरा रोयाँ-रोयाँ उनका तो फिर मेरी चीज़ें मेरी कैसे रह सकती हैं। सब कुछ उनका है। लेकिन बाज़ औक़ात वो ऐसा तकल्लुफ़ बरतते हैं कि महसूस होता है कि जैसे उन्हें शक है कि मैं या मेरी चीज़ें बिल्कुल उनकी नहीं हैं। रात ही की बातें देखिए। एक मर्तबा तो सौ रूपये ख़ुद मांग कर ले गए, दूसरी बार गहनों का संदूक़चा मुझसे छुपा कर जो ले जाने लगे तो ऐसे घबराए कि गिर पड़े। मुझे अब भी उनकी हरकत पर हँसी आती है।

    हुआ ये कि रात कोई ग्यारह बजे जब सब लोग खाना वाना खा चुके तो वो बाहर ही अपने दोस्तों के साथ बैठे रहे। मैंने ईशा नवाफ़िल के साथ पढ़ी और सो रही। कोई तीन बजे होंगे कि वो दबे पाँव अंदर आए। मगर मैं आहट से जाग गई। उनके चेहरे पर अजीब घबराहट सी थी। मैंने पूछा क्या बात है। कोई जवाब दिया बल्कि मेरे पलंग की पट्टी पर आकर बैठ गए। मैं उठने लगी तो बोले,नहीं, तुम लेटी रहो। फिर ख़ुद ही मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर बोले,तुम्हारे पास कुछ रूपये हैं? मैंने कहा,हैं क्यों नहीं। बोले,कितने? मैंने कहा,पूरे एक सो! कहने लगे,कहाँ हैं? मैंने कहा,बक्स में हैं। निकाल दूँ? बोले,नहीं, कुंजी दे दो, मैं निकाल लूँगा

    मैंने सिरहाने से कुंजी उठा कर दे दी। उन्होंने बक्स खोला। रूपये निकाले और कुंजी लिए हुए चले गए। मैं नहीं कह सकती कि मुझे उस वक़्त कैसी ख़ुशी हुई। अब्बा जान ने जो हाथ रोक कर ख़र्च करने का सलीक़ा सिखाया था और कुछ कुछ बचा कर रख छोड़ने की ताकीद की थी वो कैसे मौक़े पर काम आई। मैंने थाने पर आने के बाद घर के ख़र्च से दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह रूपया महीना करके जो बचाया था, वो आज उनके काम आया। उनको देकर उन्हें ख़ुश किया, इससे बेहतर मेरी और क्या ख़ुश-नसीबी हो सकती थी। मैंने दिल ही दिल में ख़ुदा का शुक्र अदा किया, सुबह उठते ही दो रक्अत नमाज़ शुक्र अदा करना तै किया और मैं सो रही।

    एक घंटा बाद फिर आहट से आँख खुल गई। मुर्ग़ बोल रहे थे, झुटपुटे से पहले का धुँधलका था, उनका चेहरा अच्छी तरह से दिखाई देता था, मुझ पर भी नींद की कसल थी, बोला गया, मैं चुपकी लेटी रही। वो आहिस्ता-आहिस्ता क़दम रखते हुए उस कमरे की तरफ़ गए जहाँ गहनों का संदूक़चा था और उसे उठाकर मेरे पलंग की तरफ़ पलट-पलट कर देखते हुए चले। मुझे बे-साख़्ता हँसी  गई। हँसी की बात ही थी। छः फ़ुट का मर्दवा, जब अपने ही घर में बिल्ली की चाल चले और अपनी ही चीज़ ले जाने में इस तरह की हरकत करे कि मालूम हो कि किसी की चोरी कर रहा है तो हँसी आए या आए लेकिन मेरी हँसी बे-मौक़ा साबित हुई।

    वो ऐसा घबराए कि सामने ही रखी हुई मेज़ उन्हें दिखाई दी। वो उसके पाए से उलझे और संदूक़चा समेत फ़र्श पर गिर पड़े। मेरा दिल धक से हो गया। मेरी बे-साख़्ता हँसी से उनको चोट लगी। लेकिन जब तक मैं ये कहती पलंग से उठूँ -उठूँ कि कहीं चोट तो नहीं आई, वो जल्दी से संदूक़चा उठा कर बाहर भाग गए। मैं बड़ी देर तक उनके इस भागने पर हँसती रही। इस भागने की क्या ज़रूरत थी? क्या कोई शख़्स अपनी ही चीज़ चुरा सकता है?

    आज मुझे यक़ीन हो गया कि रहीमन जो उनको तरह-तरह से बदनाम करती है वो सरासर झूट और ग़लत है। वो वाक़ई बड़े सीधे-सादे शरीफ़ इंसान हैं, कोई बद-तीनत आदमी अपने किए पर पछताता नहीं। फिर कोई कितना ही बड़ा क़सूर करे अगर उसने तौबा कर ली तो फिर तो वो उतना ही गुनाहों से पाक साफ़ हो जाता है जितना कि दूध पीता गोद का बच्चा।

    आज ही की बात को ले लीजिए। सुबह जो वो गहनों का संदूक़चा लेकर भागे तो दस बजे दिन तक घर में आए। बाहर की आवाज़ों से मालूम होता था जैसे रात के साथी एक-एक करके चले गए मगर वो फिर भी अंदर आए। मैंने समझा किसी काम में होंगे। रहीमन से कहा,पुछवालो, नाश्ता बाहर ही भेज दिया जाए या अंदर  आकर करेंगे। मगर वो तो सीधी बात करना जानती ही नहीं। अपने मालिक को भी डाँटने और नसीहत करने का अपने को हक़दार समझती है। बड़बड़ाती हुई उठी और ड्योढ़ी पर जाकर उसने बाहर झाँक कर देखा। शायद वो अकेले ही थे। उसने वहीं से खड़े-खड़े डाँटा,वाह दूल्हा मियाँ वाह! आप यहाँ अकेले बैठे मक्खी मार रहे हैं और वहाँ बिटिया नाश्ता लिए बैठी हैं।

    मुझे रहीमन का ये अंदाज़ बहुत बुरा लगा। वो नौकरानी थी और वो उसके आक़ा। मैं बीवी थी और वो मेरे सरताज। हमारा तो काम ही था कि हम उनकी ख़ुशी देखें। उनकी फ़ुर्सत का इंतज़ार करें। यही हमारी ऐन राहत है, यही हमारी जन्नत! मगर क़ब्ल इसके कि मैं रहीमन को टोकूँ वो ख़ुद ही सर झुकाए अंदर चले आए। उनकी चाल इतनी सुस्त थी कि जान पड़ता था कोसों का चक्कर लगा कर रहे हैं। मैंने लोटे, मंजन, साबून, बेसन की तरफ़ इशारा क्या, ज़रा मुँह-हाथ धो डालिए। रात भर जागे हैं, कुछ खा कर आराम कीजिए।

    मगर वो कुछ बोले नहीं, मुझे बड़ी हसरत से देखा और अपने पलंग पर जाकर गिर पड़े। मैं घबरा कर जल्दी से पास पहुँची। उन्होंने करवट लेकर मुँह फेर लिया। मेरा कलेजा मुँह को गया। हो हो, मुझसे किसी बात पर नाराज़ हैं। मैंने डरते-डरते पिंडली दबाने के लिए हाथ बढ़ाए। उन्होंने टाँगें खींच लीं और मुझे ज़बरदस्ती पलंग पर बिठा कर मेरी गोद में सर रख कर बोले,मैं तुम्हारा क़सूरवार हूँ, मैंने तुम्हारे सारे गहने खो दिए! मुझे सच्चे दिल से माफ़ कर दो!

    मुझे हँसी गई। मेरा मर्द भी कितना भोला है। जैसे वो गहने मेरे ही तो थे! उन्होंने घबरा कर मुझे देखा। मैंने ज़बरदस्ती मतीन बनकर कहा,वो गहने पहनती मैं ज़रूर थी, मगर थे वो आप ही के! गर आपने उन्हें किसी को दे दिया तो आपकी ख़ुशी। मैं आपके सर अज़ीज़ की क़सम खाती हूँ मैं इस हालत में भी उतनी ही ख़ुश हूँ जितनी कि पहले थी।

    मेरे इस कहने पर भी उनके चेहरे पर अफ़्सुर्दगी के आसार मौजूद पाए बल्कि अब उनमें शर्मिंदगी की झलक भी थी। मैं सोचने लगी कि मैं कौन सी बात ऐसी कहूँ या करूँ जिससे इनके चेहरे पर रंज की जगह ख़ुशी की लहर दौड़ने लगे। उन्होंने जो माफ़ी की लफ़्ज़ इस्तेमाल की थी, उसने मुझे एक ऐसी बात याद दिला दी जिसकी हर मर्द को अपनी बीवी की तरफ़ से फ़िक्र होती है और जिनके मुतअल्लिक़ मैं पहले ही दिन से दिल में ठाने बैठी थी कि मैं उनसे ज़रूर कहूँगी। आज तक कहने का मौक़ा ही मिला था। आज उनको इस तरह अपनी गोद में सर रखे देख कर वो बात याद गई। मैंने उनके सर के बालों से खेलते हुए कहा,मैंने सच्चे दिल से अपना मेहर आपको माफ़ किया।

    वो इस तरह उछल पड़े जैसे मेरी बात उनके दिल पर घूँसा बन कर लगी। वो डबडबाई आँखों से मुझे देखकर बोले,ज़कू, मौलाना जो तुम्हें कहते हैं उसका मुझे भी आज यक़ीन हो गया। तुम वाक़ई जन्नती हूर हो! और वो मेरी गोद में मुँह छुपा कर सिसकने लगे।

    रहीमन कहती है तुमने अपने मियाँ पर जादू कर दिया है और छम्मी जान ने तुम पर। पहले इल्ज़ाम की वजह वो ये बताती है कि दीवाली के दिन वाली गुफ़्तगू के बाद ही छम्मी जान निकाल दी गईं। बाहर का बैठना, आधी-आधी रात तक घूमना तर्क कर दिया गया। अब जब भी सरकारी कामों से फ़ुर्सत मिलती है वो मेरे ही पास बैठे रहते हैं और मुझे इस तरह घूरते हैं कि मुझे हँसी जाती है, कभी में शर्म से पसीने-पसीने हो जाती हूँ। सचमुच ऐसा महसूस होता है जैसे वो मुझे आँखों के ज़रिए खा जाना चाहते हैं, सीने में रख लेना चाहते हैं। ख़ुद कहते हैं मैं अंधा था अब आँखें खुली हैं। तुम्हींने इन नयनों में नूर डाला है, तुम्हीं से आँखें लड़ाता हूँ, तुम्हारे ही हुस्न से आँखें सेंकता हूँ, तुम्हीं को देख कर आँखों में रौशनी बढ़ती है, जी ही नहीं भरता... जाने और क्या-क्या कहते हैं। मुझ को उनकी चलती हुई ज़बान रोकने के लिए उनके लबों पर हाथ रख देना पड़ता है। मैं बहुत ख़ुश हूँ। अल्लाह सबको ऐसा ही चाहने वाला मियाँ दे।

    दूसरे इल्ज़ाम की वजह रहीमन ये बताती है कि छम्मी जान के जाने के सातवें दिन मेरे हाँ इस्क़ात हुआ और उस वक़्त से जो तबियत बिगड़ी है, तो सँभलने ही को नहीं आई। गाँव की चमारिन ने ख़ूब-ख़ूब पेट मला, शहर से दाई भी आई और हफ़्तों रहकर और अपनी सारी तरकीबें करके हार कर चली गई। हकीम, वैद, डॉक्टर सबही आगए मगर खाँसी जाती है, हरारत। कल डॉक्टरनी आई थी। कहती थी तुमको निस्वानी ख़राबी से दिक़ हो गई है। भुवाली जाना पड़ेगा। मैंने कह दिया में जाऊँगी। मुझे यक़ीन है मौत मुक़र्ररा वक़्त पर आएगी, एक लम्हा बाद एक लम्हा पहले। फिर मैं उसके क़दम क्यों छोड़ूँ जिसकी वजह से ज़िंदगी जन्नत है। मरने के बाद वो मिलने की नहीं। मेरी जैसी गुनहगारों का वहाँ क्या गुज़र। फिर मैं आधी छोड़ कर सारी के पीछे क्यों दौड़ूँ?

    हाँ, एक सुहान-ए-रूह है। लोग कहते हैं कि ये मुई बीमारी एक से दूसरे को हो जाती है। मैं लाख चाहती हूँ वो मुझसे अलग रहें। अपने खाने के बरतन, ग्लास, कटोरा, चाय की प्याली, बिस्तर, तौलिया हर चीज़ अलग कर ली है। रहीमन पर ताकीद रखती हूँ कि मेरी इस्तेमाल की हुई चीज़ें उनके पास पहुँचने पाएं। लेकिन वो हैं कि हर वक़्त लिए ही रहते हैं। मेरी हर चीज़ इस तरह इस्तेमाल करते हैं जैसे मुझे कोई बीमारी ही नहीं। अंदर आएंगे तो झट मेरे पलंग पर बैठ जाएंगे। रात को सोएंगे तो मुझे गोदी में लेकर सोएंगे। खाँसते-खाँसते उठ जाऊँगी तो बराबर पीठ सहलाएंगे, तौलिया से मुँह पोंछते रहेंगे और खाँसी रुकेगी तो मुँह चूम लेंगे। बस ख़ुदा से हर वक़्त दुआ है कि वो हर तरह की बीमारी, आज़ारी से महफ़ूज़ रहें। मेरे अल्लाह अपनी गुनहगार बंदी की इतनी सी बात सुन ले।

    मौलाना के आँसुओं ने उनका पढ़ना बंद कर दिया। और अब पढ़ना ही क्या था। मुसन्निफ़ ने किताब की आख़िरी सतरें लिख दी थीं। और आज अज़हर ने मर कर तम्मत बिल-खै़र का फ़िक़रा भी बढ़ा दिया था...! साहिल पर खेलने वाले दोनों पैराक आज दरिया पार कर चुके थे! ज़िंदगी की आँखों से गिरे हुए आँसुओं के दो क़तरे सर चश्मे में जा कर मिल गए थे, और ज़क्कू के दिल की गहराइयों से निकली हुई दुआ क्यों क़बूल हुई, इसका मौलाना के पास कोई जवाब था और मौलाना को ऐसा महसूस हुआ जैसे ज़क्कू अपने दिल-नशीं अंदाज़ में उनसे कह रही है,अब्बा जान! अब्बा जान, मुलाक़ात की भूकी रूह अपने हमदम को पास बुला लेने में कामयाब हुई। हम जुदाई के ज़ख़्म को नासूर में बदलना चाहते थे। हमारी जन्नत एक-दूसरे के साथ ही रहने में है... और अब्बा जान जिसे मैं अच्छा समझती थी उसे आप बुरा समझने वाले कौन? और जिसे आप ने गुनाह करते नहीं देखा उसके गुनाहगार होने का आपको यक़ीन कैसे?

    और मौलाना इज्तबा को ख़्याल आया, अज़हर की लाश मस्जिद के सामने अब भी रखी है और लोग मुंतज़िर खड़े हैं कि इमाम आए तो नमाज़ पढ़ी जाए और वो लपकते, हाँपते, सिसकते घर से निकले और सफ़ों के आगे खड़े हो कर उन्होंने हाथ उठा कर गवाही दी,

    सबके बख़्शने वाले! हम इस मैयत के बारे में सिवाए नेकी और भलाई के कुछ नहीं जानते।

    स्रोत:

    Ali Abbas Husaini Ki Kahaniyan (Pg. 544)

      • प्रकाशक: नन्द किशोर विक्रम
      • प्रकाशन वर्ष: 2015

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए