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अदीबों की क़िस्में

अहमद जमाल पाशा

अदीबों की क़िस्में

अहमद जमाल पाशा

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    हिंदुस्तान और पाकिस्तान की अगर राय शुमारी की जाये तो नव्वे फ़ीसदी अदीब निकलेगा बाक़ी दस फ़ीसदी पढ़ा लिखा, लेकिन अगर शोअरा हज़रात के सिलसिले में गिनती गिनी जाये तो पता चलेगा कि पूरा आवे का आवा ही टेढ़ा है। अब ज़रा ये भी सोचिए कि राय शुमारी करने वाले अमले का क्या हश्र होगा, आधा अमला तो यक़ीनन शोअरा के कलाम पर सर धुन धुन कर जान दे चुका होगा क्योंकि ये ज़्यादती होगी कि शायर के पास कोई जाये और उसके कलाम से महरूम रहे। इस सिलसिले में शायर को हमेशा मजबूर और मासूम समझना चाहिए। बक़ीया बहरे और मजज़ूब होजाएंगे। अगर किसी की ज़िंदगी ने वफ़ा की तो यक़ीनन वो शायर बच निकलेगा। इस तवायफ़-उल-मलूकी और अफ़रातफ़री के आलम में फिर सिवाए इसके कोई चारा रहेगा कि महकमा-ए-आसार-ए-क़दीमा अमला के दफ़्तर को अपनी निगरानी में ले-ले ताकि सनद रहे और बवक़्त ज़रूरत काम आए।

    ये हशरात-उल-अर्ज़ की तरह फैले हुए अदीब, अनवाअ अक़साम के रंग बिरंगे होते हैं, ज़रा उनकी केंचुल तो उतारकर देखिए, दिन में तारे नज़र आने लगेंगे।

    कान्फ्रेंसों वाले अदीबों को ले लीजिए। ये आपको हर कान्फ्रेंस में तक़रीर करते ज़ोहरा-जबीनों के झुरमुट में आटोग्राफ़ देते, दावतें खाते और सफ़र ख़र्च वसूल करते नज़र आएंगे। बिला उनके कोई कान्फ्रेंस कामयाब नहीं हो सकती। उधर कान्फ्रेंस ख़त्म हुई और ये ग़ायब। क़सम ले लीजिए जो कभी उनको पढ़ते लिखते किसी ने पाया हो। शे’र-ओ-अदब से उनको दूर का इलाक़ा भी होगा। अगर ये किसी मुक़ाम पर पाए जाएं तो समझ जाइए कि ये किसी कान्फ्रेंस की आमद आमद का पेश-ख़ेमा है, कान्फ्रेंसों में शिरकत करना और अख़बारात में वक़तन फ़वक़तन बयानात देना उनका मकसद-ए-हयात है। ग़रज़ ये अदब के हर मोड़ पर आपको झंडी दिखाते हुए मिल जाएंगे। उनसे आपको कान्फ्रेंस ता कान्फ्रेंस ही नियाज़ हासिल हो सकता है। किसी कान्फ्रेंस वाले अदीब ने जब आटोग्राफ़ बुक पर दस्तख़त किए तो उनसे दरख़ास्त की गई कि आप इस पर लिख भी दीजिए। उन हज़रत ने जवाब दिया, “लिखता नहीं हूँ।”

    कान्फ्रेंस के बाद शायरों की शामत आती है। वहीं जाकर ये इन्किशाफ़ होगा कि बड़ा बड़ा शायर पड़ा हुआ है, जिसका कभी नाम भी सुना था मगर शायर है और ऐसा कि मुशायरा लूट शायर होगा। इससे बहस नहीं कि मिसरा दब रहा है, बहर से ख़ारिज है, रुक्न गिर गया या ग़ज़ल की ग़ज़ल बहर-ए-ज़ख़्ख़ार में ग़ोता-ज़न है। कही भी है या किसी से कहलवा कर लाए हैं। अगर उनके शे’र पर एतराज़ करो उसके मअनी पूछ लो, या उनकी शायरी की वजह तस्मिया, उनको साँप सूंघ जाये। महफ़िल दरहम बरहम हो जाये, मुशायरा उखड़ जाये, और आपको बजाय घर वापस जाने के अस्पताल का रुख़ करना पड़े।

    उन अदीबों का कोई ज़िक्र नहीं जो कान्फ्रेंस और मुशायरे मुनाक़िद करवाते हैं। उनका काम आने वाले मेहमानों से सफ़र ख़र्च के सिलसिले में मोल तोल करना। ख़त-ओ-किताबत, भाग दौड़, लाउड स्पीकर से ऐलान करना, इश्तिहारात लगाना। पान सिगरेट पेश करने के अलावा उस्तादों की चिलमें भरना। वालेंटियर, सेक्रेटरी, अनाउंसर वग़ैरा बनना। शराब-ओ-शे’र की तंज़ीम करना, इस मौक़े पर दुनियाभर के फ़ित्ने और कार्टून जमा करके आख़िर में उनके साथ अपनी तसावीर खींचवा लेना। अगर अदीब ज़्यादा मुंतज़िम साबित हुआ तो एक-आध सूट या शेरवानी बनवा ली। बनिए या सिगरेट वाले का क़र्ज़ा उतार दिया। हिसाब दिया हिसाब मांगा। शुक्रिया सबसे घाटे में अदा किया। मक़ामी अदीबों ने आने वाले अदीबों से दरख़ास्त की, “लिखते वक़्त उनका भी ख़्याल रखिएगा। ये उभरते हुए हैं।” डूबने वाले को किसी के उभरने पर भला क्या एतराज़ हो सकता है। मगर उनका ख़्याल तब ही किया जाता है जब कि दुबारा इस क़िस्म का ख़्याल छेड़ा जाये और ये भी उनका ख़्याल रखें।

    उनसे माक़ूल तो वो लोग होते हैं जो दिन-रात किसी काफ़ी हाउस या शराबख़ाने में बैठे रहते हैं। गप लड़ाते, अदब और आर्ट का बख़ीया उधेड़ते यानी, टेबल टॉक करते और अपने को अदीब कहते हैं। उन्होंने लिखने-पढ़ने की जानिब भी तवज्जा की उसके इरादे रखते हैं। मगर उनके बग़ल में एक मोटी सी किताब या डायरी ज़रूर दबी होगी। बहुत मुम्किन है कि ये आपसे काफ़ी भी पी लें या अपने खाने का बिल भी आप ही से अदा करादें मगर उसके बावजूद ये अपनी हरकात सकनात, चाल-ढाल, पोशाक, ख़ुराक, बातचीत से सर ता पा अदीब दिखाई देंगे। उनके चारों तरफ़ एक इंटलेक्चुअल माहौल होगा। मार्क्स, न्यूटन, आइंस्टाइन, रसल, इलियट, मीर, ग़ालिब, शेक्सपियर का नाम सुनते सुनते आपके कान पक जाएंगे। सोशालोजी और इकनॉमिक की लंबी लंबी बहसें आपको अपने में उलझा लेंगी। आप उनको अदीब समझेंगे उनसे अदब पर बात करेंगे मगर आपकी ये मजाल होगी कि आप उनसे दरयाफ़्त भी कर सकें कि हुज़ूर आप और अदब?

    उन ही के बड़े भाई, ड्राइंग रुम के अदीब कहलाते हैं। ये पूरे अदब को उसी नज़र से देखते हैं, गोया अपने मातहतों को झिड़क रहे हों। कोई उनकी नज़र में समाता ही नहीं। उनकी ज़ाती लाइब्रेरी शहर और यूनीवर्सिटी की बड़ी से बड़ी लाइब्रेरियों का मुक़ाबला करती है। जिसमें नव्वे फ़ीसदी किताबों के काग़ज़ कटे हुए नहीं होते और बक़ीया दस फ़ीसदी को दीमक चाट जाती है, बाक़ी किताबें ये बड़े ज़ौक़-ओ-शौक़ और जी जान से पढ़ते हैं। अगर ये कोई ग़ज़ल, अफ़साना या मक़ाला तख़लीक़ करने में कभी कभार कामयाब भी होजाते हैं तो उनको फ़िक्र होती है कि अब ये सुनाया किसको जाये। कम से कम पढ़ा लिखा तो हो, जिसके लिए ये मुंतज़िर रहते हैं कि मुत्तसिल इज़लाअ में भी अगर कोई राजा महाराजा, ग़ैर मुल्की सफ़ीर या कोई बहुत बड़ा अफ़सर गिरे तो ये उसके एज़ाज़ में बाक़ायदा गार्डन पार्टी देते हैं। जब बदिक़्क़त तमाम दो-चार पढ़े लिखों को जमा करने में ये कामयाब होजाते हैं तो उसकी ख़िदमत में अपनी तख़लीक़ पेश करते हैं, फिर जिस पर हफ़्तों बहस मुबाहिसे होते हैं। ग़रज़ अच्छी ख़ासी अदबी फ़िज़ा पैदा होजाती है। एक साहब ने मक़ाला लिखा जब अर्से तक कोई माक़ूल पढ़ा लिखा अदीब नहीं मिल सका तो मजबूरन उसको सुनाने वो अपने किसी दोस्त के पास हवाई जहाज़ से जर्मनी चले गए। बस उनकी दुनिया ड्राइंगरूम तक महदूद है। ये अदबी अजाइब ख़ाने के शो केस के मेहमान हैं। उसके बाहर ये अदब पर बात करेंगे और सुनेंगे, अगर भूले-भटके ये किस मुशायरे या कान्फ्रेंस की सदारत के लिए आमादा होजाएं और अपनी तख़लीक़ से पब्लिक को फ़ैज़याब करें, उस वक़्त जितनी ज़्यादा बोर उनकी चीज़ होगी इतनी ज़्यादा वाह वाह होगी। उनके मुलाज़िम, मातहत और क्लर्क अगर इस मौक़े पर तारीफ़ करें, तो दूसरे दिन उनसे जवाब तलब कर लिया जाये या तख़फ़ीफ़ में आजाएं।

    उनके छोटे भाई अदब बराए ताक़ के क़ाइल हैं और अदबी रवायात की डोर का सिरा इल्म सीना से मिलाते हैं। अव्वल तो आपको हवा ही नहीं लगने देंगे कि हम भी कुछ जानते हैं लेकिन अगर आप को घांस डाली भी और आप ने चरने के ख़्याल से मुँह मारा भी, तो बदिक़्क़त तमाम वो मिल तो लेंगे आप से मगर इस अंदाज़ से गोया अपनी तबीयत पर जबर करने के अलावा आप पर एहसान-ए-अज़ीम भी फ़रमा रहे हैं। इस को बला संजीदगी तारी कर लेंगे कि आपको महसूस हो कि दारोगा पुलिस बिला ज़मानती वारंट के आपके सर पर मौजूद है। सबसे पहले तो वो ये इन्किशाफ़ करेंगे कि आज तक कुछ लिखा गया है आइन्दा उम्मीद है और जो कुछ नज़र आरहा है वो ख़स-ओ-ख़ाशाक है। फिर अगर मुनासिब समझेंगे तो अपने ज़िक्र-ए-ख़ैर के साथ कि वो हमारी तख़लीक़ात हैं आज़ार बंद में बंधी हुई कुंजी आपको दिखाते हुए कहेंगे, वो संदूक़ में सब कुछ महफ़ूज़ है और ज़्यादा अहम तशरीहात सीने में महफ़ूज़ हैं।

    ख़ाकसार की नज़र से ऐसे अदीब भी गुज़रे हैं जो मअ लाव लश्कर के सफ़ें तर्तीब देते हुए ख़ुद इल्म का फुरेरा बुलंद किए क़ल्ब में मौजूद, मंज़िलों पर मंज़िलें मारते चले जा रहे हैं। उर्दू के नाम पर फ़िदा और अपने ख़्याल में अदब के वाहिद मुश्किल कुशा और मुहाफ़िज़, किसी जानिब से अगर ज़रा भी सरकशी का ख़तरा हुआ, फ़ौरन कनौतियां खड़ी हो गईं। कूच का हुक्म दे दिया गया कि जाओ फ़ना हो जाओ, मिट जाओ और मिटा दो। मगर बहादुरो तुम अदब से हो और अदब तुमसे है। याद रखो अगर तुम पस्पा हो गए तो तारीख़-ए-अदब के सफ़े पर तुम्हारा निशान भी मिलेगा। ग़नीम की ये मजाल कि हम पर जुमला फेंके, उन मुल्क-ए-अदब के शहरयारों और देसी राजा नवाबों की नक़्ल-ओ-हरकत का पता रसाइल में छपने वाले ख़ुतूत मज़ामीन और अदारियों से होता है, जिनकी पहचान ये है कि मुख़ालिफ़त या मुवाफ़िक़त करने वाले का नाम उमूमन फ़र्ज़ी होता है और इस पर वो ज़ंगारी के पीछे हक़ीक़त में मोतरिज़ या मोतरिफ़ ख़ुद नफ़्स-ए-नफ़ीस मौजूद होते हैं, उधर किसी बात ने तब-ए-नाज़ुक पर गिरानी की और जंग मग़लूबा शुरू हो गई। ये जिसकी लाठी उस की भैंस को अपना आइडियल बनाते हैं। भैंस की उनके होते ज़रूरत नहीं पड़ती और लाठी चार्ज फ़रीक़ मुख़ालिफ़ की जानिब से होता ही है। इससे उनका मक़सद भी हल होजाता है कि लोग जान जाएं कि,

    हम भी हैं पाँचवें सवारों में।

    अगर अकेले बढ़े तो किसी तरफ़ से शह पड़ जाये इसलिए शागिर्दों का पूरा लश्कर साथ रखते हैं चूँकि अपना रंग निकालना जान जोखम का काम होता है, इसलिए असातिज़ा के रंग में तब्अ-आज़माई की जाती है। बाद में हरीफ़ तवारुद का इल्ज़ाम लगाता है और आख़िर में साबित ये होता है कि वो तवारुद नहीं सरक़ा था। ग़लत बात को सही और सही को ग़लत साबित करने पर सारा ज़ोर-ए-क़लम सर्फ़ कर दिया जाता है। जब इस पर सुनवाई नहीं होती तो अपनी शान में क़सीदे फ़र्ज़ी नामों से भेज कर नाक में दम कर दिया जाता है कि, तारीफ़ नहीं करोगे तो जाओगे कहाँ?

    अदीबों की एक क़िस्म और होती है उनको अदब का कंट्रोलर भी कहा जा सकता है और गार्ड भी जो कभी सुर्ख झंडी दिखाकर रोक दे और कभी हरी झंडी दिखाकर चलता कर दे। ये अदब के बाबा लोग होते हैं। अगर उनकी तेवरी पर बल आजाए तो कुफ़्र का फ़तवा दे दें और ख़ुश होजाएं तो दिन फिर जाएं, ये रिसाले निकालते और दीबाचे लिखते हैं। ज़्यादा मूड में आगए तो एक-आध तआरुफ़ भी लिख डाला। चलिए अल्लाह अल्लाह ख़ैर सल्ला, उनसे मुनहरिफ़ होना आसान नहीं होता। बस जो यह चाहेंगे वही होगा अदब के मैदान में उनकी पोज़ीशन ट्रैफ़िक कांस्टेबल की सी होती है, कभी ख़ुशनुमा मोटर गुज़र जाने दिया और कभी लाश गाड़ी भी रोक दी। उनका काम सरपरस्ती और निगरानी तक महदूद होता है। बस ये देख देखकर ख़ुश होते हैं कि बच्चे खेल रहे हैं, या कभी मुस्कुरा कर मना कर दिया है। बेबी धूल में मत खेलो कपड़े ख़राब होजाएंगे। मगर ख़्वाहिश यही रहेगी कि ये ताज़ा अरवान-ए-बिसात बिगड़ जाएं। अगर उनसे इस्लाह लो या उनका शागिर्द अपने को तस्लीम करो तो उनकी ख़ुदी को बड़ी ठेस लगती है कि ये नई पौद बड़ी ख़ुद सर मालूम होती है ज़रूर कुछ कुछ गुल खिला कर रहेगी। आप उन्हें उस्ताद मान लीजिए ये आपको अदीब तस्लीम कर लेंगे, जहाँ आपने उनसे ज़्यादा तीन-पाँच की और बनाया उन्होंने मुर्ग़ा या बें पर खड़ा कर दिया। अगर भूल चूक में उनसे कोई हवाई सर हो जाए तो यकायक सारे अदब की मशीनरी हरकत में आजाती है। कोई भी तज़्किरा बिला उस शाहकार के ज़िक्र-ए-ख़ैर के तिश्ना तसव्वुर किया जाता है।

    अभी हाल में अदीबों की एक और क़िस्म भी दरयाफ़्त की गई है, उनको अदीब तो नहीं मगर अदीबों का हाशिया बरदार (सुख़न फ़हम) ज़रूर कहा जा सकता है जिससे भी उनकी लड़ाई दोस्ती या ख़त-ओ-किताबत हो, समझ लीजिए कि वो अदीब है मगर ये ख़ुद क़सम खाने को भी अदीब नहीं होते। ये क़लमी दोस्ती के शाइक होते हैं। किताबें और रिसाले ख़रीदेंगे, अदबी रसाइल की बज़्म-ए-मुकालमात में जमा होंगे। एडिटर को भैया बनाकर पूछेंगे, आप शादी कब तक कर रहे हैं? अपनी तस्वीर कब तक छाप रहे हैं? या फ़ुलां फ़ुलां साहब की तख़लीक़ात पसंद आईं। उनके सवाल और ख़ुतूत उनके अदीब होने की दलील होते हैं। अभी तक किसी ऐसे अदीब का मजमूआ नज़र से नहीं गुज़रा मगर चंद प्राइवेट एलबम ज़रूर देखने का गुनाहगार हूँ जिनमें तस्वीरों के बजाय सवाल जवाब और ख़त चस्पाँ थे। शौक़ बुरा नहीं, ये किताबों पर तब्सिरे भी करते हैं, मगर मुनासिब हद तक किताब और मुसन्निफ़ का नाम, पढ़ी या नहीं पढ़ी। हाँ नहीं से आगे नहीं बढ़ते।

    उन्ही के एक और भाई बंद दरयाफ़्त किए गए हैं जिसको हम आप ‘डाकिया’ कहते हैं। चिट्ठी रसां, अदब के लिए ख़ौफ़नाक हद तक ज़रर रसां होने के बावजूद बहुत बड़ा अदीब और नक़्क़ाद होता है। ये रोज़मर्रा की डाक पर बड़ी सख़्त तन्क़ीद करता है... में बहुत सा अदब नज़र-ए-आतिश होजाता है और सिवाए चाय के कुछ बरामद नहीं होता जिसको रद्दी समझता है बनिए के हाथ बेच डालता है। इस तरह फ़ुज़ूल चीज़ को भी नफ़ा बख़्श बना देता है। उस को हमारे अदब की इस्तिलाह में गली तन्क़ीद कहते हैं। उसके मुताले के ज़ौक़-ओ-शौक़ और लगन का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि शायद ही कोई रिसाला या किताब ऐसी हो जिसको ये अपने मुताले के लिए रख ले। जिन पुर मग़्ज़ इदारियों में उसका ज़िक्र-ए-ख़ैर होता है उनको भी ये अपने मुताले के लिए महफ़ूज़ कर लेता है। उसमें अदबी सूझ-बूझ के साथ गहराई भी होती है जिसकी वजह से बजाय इज़हार करने के ख़ामोशी के साथ अपने काम में लगा रहता है।

    जाने आपने बरख़ूद ग़लत अदीब, और ‘मोहमलगो शायर’ देखे और सुने हैं या नहीं, लिखने पढ़ने से बाप मारे का बैर, मगर अकड़े हुए इस तरह गोया आप ही बाबाए अदब, हैं। किसी को ख़ातिर में नहीं ला रहे हैं, बस तने जा रहे हैं। किसी को घूरा किसी को टोका, किसी को नज़रअंदाज कर दिया, किसी को झिड़क दिया। तन्क़ीद का मयार, टेबल टॉक के वक़्त इतना बुलंद होगा कि कीड़े भी बनेंगे तो कम अज़ कम अफ़लातून या उसके उस्ताद को अपने को अदब का कुतुबमीनार बताएँगे, कोई मयार पर पूरा उतरेगा ही नहीं लेकिन उनके कलाम की ख़ामियाँ अगर सलाह की ग़रज़ से भी आप उन्हें समझाना चाहेंगे बस अकड़ जाएंगे। हंगामा बरपा कर देंगे। सारी मुख़ालिफ़त की बिना पर ये होगी कि जब हम काम नहीं करते तो उन्होंने कोई काम किया ही क्यों, अगर आप उनके आदमी हैं तो इस चीज़ को सहीफ़-ए-आसमानी क़रार देंगे वर्ना उसी चीज़ में शायद ही कोई ऐसी ख़ामी हो जिसको ये उस वक़्त समझा दें। उनके यहाँ तन्क़ीद के पैमाने ज़ाती ताल्लुक़ात की मदद से तैयार किए जाते हैं। मुतशायर का मुस्तक़िल इसरार उसी पर होता है कि फ़िलहाल इसे शायर तस्लीम कर लिया जाये। शे’र बामानी हो या बेमानी मगर दाद में बुख़्ल से काम लिया जाये।

    गुमनाम अदीब उमूमन क़स्बात से ताल्लुक़ रखते हैं। देहात की ताज़ा और खुली हुई फ़िज़ा में बंजर ऊसर ज़मीन पर अदब की काश्त करते हैं। अदब उनके घर की खेती होती ही है। तख़ल्लुस में मुक़ामियत को दख़ल होता है, अगर बांगड़ मऊ का है तो बांगड़ मऊई, बलिया का है तो बलियाटिक कहलाने पर इसरार करेगा। उनकी तख़लीक़ात क़व्वालियां, कजरी, पक्के पक्के गाने, सहरे और उनके कलाम बलाग़त-ए-निज़ाम के गुलदस्ते होते हैं जो आपको बाज़ार से एक आना में बकफ़ायत मिल सकते हैं। बीड़ी और दाँत के मंजन के बाक़ायदा जुलूस, मेले और उर्स के मौक़ों पर ये आप मुफ़्त भी सुन सकते हैं। इसके अलावा मुख़्तलिफ़, मुफ़ीद रिसाले भी ये बराबर शाए करते रहते हैं मसलन ऐसी जंतरियाँ जो सिर्फ़ आपकी क़िस्मत बतादें, तंदुरुस्ती और जड़ी बूटियों के राज़, सैकड़ों खु़फ़िया चुटकुले, रोज़गार और दौलत पैदा करने के लिए बेशुमार तरीक़े, आप क्या कमाएं। ग़रज़ आप चाहें तो उनकी मदद से ब-आसानी हर फ़न मौला हो सकते हैं। चाहें तो उनकी मदद से सही मुअम्मा भर कर या डर्बी की लाटरी ख़रीद कर लाखों के मालिक बआसानी बन सकते हैं। उनमें जो तरक़्क़ी कर जाते हैं फिर वो सिर्फ़ किताबें लिखते हैं। बस धड़ा धड़ चली आरही है किताब पर किताब, जासूसी, रूमानी, तारीख़ी, सनसनीखेज़ और बेहोश कर देने वाली। आपकी रातों की नींद और भूक ग़ायब हो जाएगी। पढ़ने के बाद शायद आप ख़ुद भी ग़ायब होजाएं। उसमें अदब वग़ैरा का ज़्यादा चक्कर नहीं होता। अगर तारीख़ी है तो उसमें सिवाए तारीख़ के सब कुछ मिल जाएगा। और नॉवेल है तो बस नॉवेल होगी और हर चीज़ हो सकती है। चूँकि बच्चों के लिए लिखना सबसे मुश्किल समझा जाता है, इसलिए समझ से काम लेकर ये सब के सब बआसानी बच्चों के अदीब बन जाते हैं। सिवाए इसके और कुछ नहीं करना पड़ता कि इंसान लिखते वक़्त बच्चा बन जाये फिर हर क़िस्म की नादानी और हमाक़त कर सकता है।

    अदब को घर की लौंडी समझने वाले अदीबों की कभी कमी नहीं थी। पहले अरबी फ़ारसी ज़दा समझते थे कि जब चाहेंगे और जो चाहेंगे लिख देंगे, पत्थर की लकीर हो जाएगा। उसके बाद अंग्रेज़ी दां हज़रात ने भी उससे ये सौतापा बरतना चाहा मगर ये हज़रात इधर के रहे उधर के। अगर कभी ये किसी को ख़ातिर में लाए तो इस वजह से कि अपना अज़ीज़ निकल आया तो मुरव्वत भी आगई। उन हज़रात की लगाम कसने के लिए कुछ ऐसे सक्क़ा हज़रात मैदान-ए-अमल में नमूदार हुए जिन्होंने आते ही साबित कर दिया कि ये तारीख़-ए-वफ़ात ग़लत है और इस नाम का कोई शख़्स था ही नहीं। उन हज़रात से जान बचाने के लिए किसी ने मज़हब की आड़ ली और कोई बिल्कुल सामने आगया। किसी ने छक्का मारा और एक ही तस्नीफ़ पर इतनी वाह वाह हो गई कि डर के मारे फिर दिखाई भी नहीं दिए कि अगर अब की चूक गए तो रही सही साख भी जाएगी और कुछ अच्छा ख़ासा लिखते लिखते ख़ासास्सा बोर लिखने लगे।

    मगर अफ़सोस तो उन अदीबों पर है जो लिख सकते हैं मगर नहीं लिखते। लिखने का इलाज ही क्या?

    मगर सबसे दिलचस्प अदीब वो होते हैं कि अच्छे ख़ासे अफ़साने लिख सकते हैं कि बेशुमार बोर ड्रामे पर ड्रामा लिखे चले जा रहे हैं या शायर अच्छा ख़ाशा मगर बन बैठा नावेलिस्ट, एक से एक नामाक़ूल क़िस्म की नॉवेलें बुक स्टाल से बरामद होती चली रही हैं।

    आख़िरी क़िस्म अदीबों की वो होती है जो अपने मातहतों से लिखवा लिखवा कर बहुत जल्द अदब में क़ुतुब की हैसियत इख़्तियार करलेती है। ये अदीब कम और ग्लेयर ब्वॉय ज़्यादा होते हैं। ये काउ ब्वॉय की तरह अदब में आते हैं और बहुत जल्द टेड्डी- ब्वॉय की तरह ग़ायब हो जाते हैं।

    स्रोत:

    सितम ईजाद (Pg. 141)

    • लेखक: अहमद जमाल पाशा
      • प्रकाशन वर्ष: 1966

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