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यूनीवर्सिटी के लड़के

अहमद जमाल पाशा

यूनीवर्सिटी के लड़के

अहमद जमाल पाशा

MORE BYअहमद जमाल पाशा

    साहब लड़कों की तो आजकल भरमार है। जिधर देखिए लड़के ही लड़के नज़र आते हैं। गोया ख़ुदा की क़ुदरत का जलवा यही लड़के हैं। घर अंदर लड़के, घर बाहर लड़के, पास पड़ोस में लड़के, मुहल्ला मुहल्ला लड़के, गाँव और शहरों में लड़के, सूबे और मुल्क में लड़के, ग़रज़ ये कि दुनिया भर में लड़के ही लड़के, जहाँ तक नज़र काम करेगी लड़के ही लड़के दिखाई देंगे और जहाँ नज़र काम करेगी वहाँ का क्या कहना क्योंकि वहाँ तो लड़के होंगे ही।

    यूं तो उनकी काश्त हर मौसम, हर आब-ओ-हवा और हर मुल्क में की जाती है। लेकिन आप जानिए हर मुल्क की रवायात अलग अलग होती हैं और इसी में शान है। हमारे मुल्क की शान चूँकि सबसे अलग है लिहाज़ा दुनिया भर में लड़कों की काश्त के एतबार से हमारा मुल़्क सबसे ज़रख़ेज़ वाक़े हुआ है। यहाँ के बाशिंदों ने बंजर मुक़ामात पर भी उनकी काश्त करके मुल्क को ज़रख़ेज़-ओ-मालामाल कर दिया है। इसके बारे में कुछ माहिरीन का ख़्याल है “ज़्यादा ग़ल्ला उगाओ” की तहरीक को जब से “ज़्यादा लड़के पढ़ाओ” में समोया गया है तब से यूनीवर्सिटीयां लड़कों से खचाखच भरने लगी हैं और ये तहरीक भी सिविल नाफ़रमानी वाली तहरीक की एक कड़ी है। अब चाहे ये कड़ी हो धनी हमको इससे मतलब नहीं, ये सब बातें बुज़ुर्गों की बातें हैं, उनमें दख़ल देना क़ुदरत का मज़ाक़ उड़ाने और छोटा मुँह बड़ी बात के मुतरादिफ़ होगा। अहवाल वाक़ई ये है कि हम से कुछ लोगों ने फ़रमाइश की है कि साहब हमने घाट घाट के लड़के देखे हैं। शरीफ़ लड़के, लोफ़र लड़के और ऐसे लड़के जैसे कि ख़ुद लड़के होते हैं। मगर नहीं देखे हैं तो यूनिवर्सिटी के लड़के नहीं देखे हैं। खुदारा हमारी जनरल नालेज में कुछ इज़ाफ़ा कीजिए। इस सिलसिले में अर्ज़ है कि यूनिवर्सिटी ऐसा मक़ाम है जहाँ भांत भांत के लड़के मिलते हैं जिनकी मुख्तलिफ़ क़िस्में हैं और उन क़िस्मों के मुख्तलिफ़ कलि फंदे होते हैं। लड़के यूनिवर्सिटी में इस क़दर भारी तादाद में रोज़ क्यों आते हैं? अतवार के दिन क्यों नहीं आते? दिन में क्यों आते हैं, रात को क्यों नहीं आते? हॉस्टल में क्यों रहते हैं, घर पर क्यों नहीं रहते, जबकि घर मौजूद हैं। तो जनाब मन यही वो मसाइल हैं जिनके समझने के लिए इस यूनिवर्सिटी में बेशुमार कमेटियां बनाईं और बिगाड़ी गईं। उन कमेटियों ने अपनी अपनी रिपोर्टें भी पेश कीं जिन्हें यूनिवर्सिटी के ज़िम्मेदारों ने निहायत ईमानदारी के साथ रद्दी की टोकरी की नज़्र कर दिया क्योंकि ज़िमेदारान का दावा है कि वो उन रिपोर्टों के ज़रिए किसी सही नतीजे पर पहुँचने से क़ासिर रहे। पता चला है कि वाईस चांसलर साहब ने उनमें से बा’ज़ मसाइल को फ़िलहाल रजिस्टर पर चढ़ा लिया है और वो इस सिलसिले में जल्द ही एक दस्तख़ती मुहिम चलाने वाले हैं जिससे पहले वो ख़ुद चलने की मश्क़ करेंगे क्योंकि अपनी मश्क़ ज़रूरी होती है। काग़ज़ का क्या एतबार आज उनके हाथ में है कल रद्दी की टोकरी में हो, वरना हमारे हाथ में होगा। मुहिम सर करनेवाली पार्टी के सदर और मैनेजर ख़ुद वाईस चांसलर साहब होंगे। तमाम प्रोफेसर्ज़, तलबा और डीन उनके गले में हार फूल डालेंगे। एहतियातन अलविदाईया भी पेश किया जाएगा, क्योंकि मुहीम का मुआमला है, खुदा जाने क्या हो क्या हो, मियां सब तक़दीर के खेल हैं। मुहीम सर करने से कुछ देर पेश्तर तमाम यूनिवर्सिटी भर में सायरन और घंटे बार बार बजेंगे। अगर मुमकिन हुआ तो मिलिट्री साइंस डिपार्टमेंट हुकूमत से आरिज़ी तौर पर कुछ तोपें भी हासिल कर लेगा ताकि गार्ड ऑफ़ ऑनर देते वक़्त कुछ हवाइयां भी सर की जासकें।

    अब आप लोग समझ गए होंगे कि दूर के ढोल कितने सुहाने होते हैं, जबकि खुद हमारे मसाइल इतने सुहाने नहीं हैं। रहा लड़कों का सवाल तो इत्तलाअन अर्ज़ किया जा चुका कि उनकी मुख्तलिफ़ क़िस्में और मुख्तलिफ़ शक्लें होती हैं। उनमें से पहली क़िस्म “हवाली तलबा” की है जो इसी नाम से मशहूर भी है, ख़ुद उन तलबा के बारे में अब तक ये तै नहीं कि वाक़ई उनका वजूद है भी या सिर्फ़ “हवाले की किताबों” की तरह हवाले ही हवाले हैं। उन तलबा को यूनीवर्सिटी के नाख़ुदा, लार्ड, मुनकिर-नकीर और किरामन-कातबीन भी कहा जा सकता है।

    यूनीवर्सिटी में होने वाले खेल तमाशे, मुशायरे, क़व्वाली, पक्के गाने, हलके फुल्के प्रोग्राम, जलसे, जुलूस वग़ैरा के ये सोलह आने ज़िम्मेदार होते हैं। उनके नाम से यूनीवर्सिटी भर वाक़िफ़ होती है। आस-पास के मोची उन के नाम लेकर अपनी दुकानें सड़कों के किनारे जमाते हैं। बात बात में उनकी तसावीर और बयानात अख़बारात हैंडबिल्स और लीफ़ लेट्स में उछलते नज़र आते हैं। मगर ये ख़ुद नज़र नहीं आते गोकि उनका ज़िक्र होता है। तमाम इंतज़ामी उमूर में उनका ख़ास-ओ-आम हाथ होता है। ये तख़्त रहे या तख़्ता के क़ाइल होते हैं। मगर कुछ दुश्मनों को शक है कि ये लोग फ़ातिरुलअक़्ल और बोहेमियन होते हैं जबकि हमारा शक है कि बात कुछ और है और जो शायद ख़ुद हम भी नहीं जानते वर्ना आपसे क्या पर्दा था।

    उन तलबा की पहचान ये है कि ये आपको हर वक़्त चलते फिरते नज़र आएंगे। मगर उनके चलने के रास्ते मुक़र्रर हैं। अगर आपको उनकी तलाश आँख बंद करके करना मक़सूद है तो हमारी राय में आप कामन रुम के सामने चले जाइए। यही एक पुरफ़िज़ा मुक़ाम है जहाँ ये लोग मौक़ा पाते ही तब्दील-ए-आब-ओ-हवा की ग़रज़ से पहुँच जाते हैं। वैसे ये शाम को हज़रत गंज में हवाख़ोरी करते नज़र आएंगे जहाँ ये मेल रोज़, इरोज़, क्वालिटी और इसी तरह के अंग्रेज़ी होटलों में नुक़रई क़हक़हों से अपने खोखले क़हक़हे मिलाते होंगे। अगर आपको उनकी तमीज़ करना मक़सूद है तो आप अपनी आँखें खोल कर उनको बजाए तलाश करने के टटोलिए ये कहीं कहीं ज़ोर ज़ोर से किसी अहम मसले पर किसी नीम रिटायर्ड क़िस्म के बुज़ुर्ग से बहस करते होंगे। उनके पीछे बहुत से अक़ीदतमंदों का हुजूम होगा। ख़ास बात ये होगी कि सब उनका नाम जानते होंगे और आम बात ये होगी कि ये ख़ुद किसी का नाम जानते होंगे। ये आपको किसी किसी लीडर या प्रोफ़ेसर वग़ैरा को किसी होनेवाली मीटिंग की सदारत के लिए उक्साते हुए मिलेंगे। हर तक़रीब में आप बआसानी उनको सदर के दाएं बाएं पहलू में देख सकते हैं।

    तमाम मुक़ाबले ग़ालिबन इन्ही तलबा के लिए करवाए जाते हैं। इम्तहानात में फ़र्स्ट क्लास और थर्ड क्लास शायद इन्ही ने जारी करवाया था। ग़रज़ ये कि वो महफ़िल महफ़िल होगी जहाँ ये पाला मार ले जाएं। हर लिखा पढ़ी के काम में उनका नाम सबसे ऊपर होगा या सबसे नीचे मगर होगा ज़रूर। ये थोड़ा सा फ़र्क़ जो फ़र्स्ट क्लास और थर्ड क्लास में पैदा होजाता है, वो इन तलबा की सितमज़रीफ़ी नहीं बल्कि ख़्यालात का टकराव है क्योंकि कुछ तलबा का ख़्याल है कि टाप ऊपर से यानी टाप से किया जाए और कुछ का ख़्याल है कि टाप नीचे से यानी बॉटम से किया जाए। उनका एतक़ाद इसी बात पर है कि नाक नाक ही होती है ख़्वाह इधर से पकड़ लो या उधर से। बाक़ी जो कसर टाप करने में रह जाती है वो ये तलबा, टीप टाप से पूरी करलेते हैं। उनके टीप टाप करने के भी दो तरीक़े हैं। कुछ तलबा का ख़्याल है कि “आला ख़्यालात सादा ज़िंदगी।” जब कि बक़ीया तलबा का क़ौल है कि नहीं नहीं “आला ज़िंदगी और सादा ख़्यालात” होना चाहिए। मगर प्रोफ़ेसर ऊटपटांग का ख़्याल है कि ये तै करना बहुत मुश्किल है कि ख़्यालात और ज़िंदगी में किस को आला और किस को सादा होना चाहिए।

    तलबा के इस पहले गिरोह के लोग उधार अपनी हजामत बनवाते और चप्पल तक्वाते हैं और जब उधार का सवाल नज़ाकत इख़्तियार कर जाए तो वो रास्ता ही चलना बंद कर देंगे और इस तरह उनकी सादगी उनके लिए नई राहें पैदा कर देती है। ये तलबा निहायत किफ़ायत शिआर होते हैं और खद्दर या गाढे को अपना शेवा क़रार देते हैं और चलते वक़्त अपने चप्पलों से एक ख़ास क़िस्म की आवाज़ पैदा करते हैं जिसको ये “आज़ाद राग” बतलाते हैं और उनका दावा है कि आइन्दा उस राग की वही अहमियत होगी जो आज जलतरंग की है। उनमें से जो लीडर निकल जाता है वो इसी बहाने अपनी हजामत और शेव वगैरा से साफ़ बच जाता है और कम ख़र्च बालानशीं का मसला इस तरह तै करता है कि हजामत का ख़र्च कम होने से कम ख़र्च हो जाता है और सर के ऊपर बालों का एक छज्जा सा बनाकर(जिसको हम बालाखाना भी कह सकते हैं और बालकनी भी) उसके नीचे अपनी खोपड़ी को पनाह दे लेता है।

    तलबा का दूसरा गिरोह पहले वाले गिरोह से मुख़्तलिफ़ होता है। यानी ज़िंदगी आला पसंद करता है। इसका सबूत ये है कि आप उनके जूतों में जो शीशे से ज़्यादा चमकदार होते हैं ब-आसानी अपना चेहरा देख सकते हैं। ये निहायत आला क़िस्म के सूट पहने होते हैं जो टाट, चमड़े या केनवस वग़ैरा के मालूम होते हैं। उनके चेहरों के बारे में हम आपसे कुछ नहीं कह सकते क्योंकि आपको उनके मुँह पर क्रीम, पाउडर और स्नो मिलेगा मगर चेहरा नहीं मिलेगा। मगर हाँ, अगर आप निहार मुँह सुबह-सवेरे उनका मुँह देखना गवारा करें तो मुम्किन है उनके चेहरे का दर्शन हो जाए।

    उन तलबा के बातचीत के तरीक़े उनके खाने पीने के तरीक़ों से मुख़्तलिफ़ होते हैं मगर फिर भी ये मालूम होता है कि ये बात नहीं करेंगे बल्कि खा जाएंगे। जब किसी मसले पर बातचीत होगी तो ऐसा ज़ाहिर करेंगे कि बस उनके जाने की देर है। गए नहीं कि मसला हल हुआ। हालाँकि उनसे मसला हल होना एक दूसरा मसला होगा मगर चूँकि उनको बातचीत करने और ख़िताब करने की लत होती है इस वजह से हमेशा सिर्फ़ बड़े बड़े मसाइल को हाथ लगाते हैं और बात करने में बराबर हाथ पैर हिलाने, घूँसा दिखाने, गर्दन हिलाने, कंधे उचकाने और मुँह चिढ़ाने से भी नहीं चूकते।

    तलबा की तीसरी क़िस्म वो होती है जिनको हम “ख़्याली तलबा” कह सकते हैं। उनके बारे में हमारा ख़्याल है कि ये यूनीवर्सिटी पढ़ने के लिए नहीं आते बल्कि यूनीवर्सिटी में ख़्याल की रफ़्तार से आते-जाते रहते हैं। ये तलबा हमेशा तवाइफ़-उल-मलूकी में मुब्तला रहते हैं। उनको दर्जों से सख़्त नफ़रत होती है। कभी कभी ये दर्जों में चले जाते हैं मगर चूँकि दिल के बिल्कुल साफ़ होते हैं और अपनी सफ़ाई में फ़र्क़ नहीं आने देते हैं। इस वजह से दर्जों में सिर्फ़ सोने या किसी की तलाश करने की ग़रज़ से जाने की तकलीफ़ उठाते हैं और जैसे साफ़ जाते हैं वैसे ही लौट आते हैं। किसी प्रोफ़ेसर से जब ये टक्कर लेते हैं जो उमूमन हो ही जाती है तो उसको निहायत मज़े ले-ले कर बयान करते हैं। वैसे होते बहुत अड़ियल हैं और आसानी से नहीं जाते। उमूमन जिस क्लास में एक मर्तबा भर्ती होते हैं निहायत वज़्अदारी से चार पाँच साल तक उसी क्लास को निभाते हैं। दरअसल उनके मुँह उस क्लास का ख़ून लग जाता है। हो सकता है ये अपने बच्चों का इंतज़ार करते हों कि उनको अपने सामने पढ़वाने का मौक़ा मिल जाए। बहरहाल उनके यहाँ देर है अंधेर नहीं।

    उन तलबा की नशिस्त-ओ-बर्ख़ास्त यूनीवर्सिटी के काफ़ी हाउस “अन्नापूरना”, “कपूर्ज़' और यूनियन हाल में होती है। वैसे ये घास फूस पर भी पाए जाते हैं। ये लोग वक़्त गुज़ारी के लिए मोटरों में बैठते हैं। जिसके पास मोटर नहीं होती वो कोई कोई मोटर तलाश कर लेता है। ख़्वाह उसके लिए उन्हें ड्राइवर मोटर हज़ा की डाँट फटकार सहना पड़े या उसको सिगरेट पिलाना पड़े। ये तलबा कपड़ों के बड़े शौक़ीन होते हैं। इस वजह से उनके कपड़ों की तारीफ़ करना चराग़ को सूरज दिखलाना है। उन तलबा का सदर मुक़ाम गर्ल्स कॉमन रुम के आस-पास का इलाक़ा है जहाँ ये इस कसरत से जमा होते हैं कि रौनक़ पैदा होजाती है और इस को यहाँ की ज़बान में चहल पहल यानी चलना फिरना कहते हैं। ये बात करने में एक दूसरे पर कड़ी नज़र रखते हैं और लिबास शनास होते हैं। उनमें कसरत उन तलबा की होती है जो साल भर एक ही पतलून और एक ही कोट को इस्त्री से रगड़ रगड़ कर और एक ही टाई को उलट-पलट कर लटकाते हैं। ये किसी बात से नहीं चूकते। हर मौक़े से पूरा फ़ायदा उठाते हैं। मसलन जाड़े का मौसम क्यों पसंद करते हैं? उनको उसका क्यों शिद्दत से इंतज़ार रहता है? सिर्फ़ इस वजह से कि जाड़े आते ही फटी हुई क़मीस और बनियानें इस्तेमाल करने का मौक़ा मिल जाता है। जाड़ों में कपड़े कम मैले होते हैं। पूरा जाड़ा एक शेरवानी में गुज़ारा जा सकता है जिसके अगर सब बटन लगा लिए जाएं तो क़मीस की बचत होती है। मगर ये तो अनकही बातें हैं, जो बातें कही जाती हैं वो यूँ हैं,

    मसलन एक दुसरे की कालर देखते हुए कहेगा, “ओहो, यह क़मीस तुमने कहाँ सिलवाई, ये तो विंड्सर कलर है जो मशीन से बनती है, हिंदुस्तान की तो मालूम नहीं होती।” अब साहब-ए- कालर जिन्होंने क़मीस ख्वाह गली के छुट्टन दर्ज़ी से सिलवाई हो अकड़ कर जवाब देंगे, “साहब, ये तो अंग्रेजों की चीज़ें हैं, यहाँ कहाँ नसीब, वो तो कहिए इंग्लैंड से लौटते में ख़ास तौर पर मेरे लिए बनवाकर सरवत भाई ले आए।” अब ज़ाहिर है सरे मजमे पर सन्नाटा छा जाएगा जिसको सिर्फ़ वही माई के लाल तोड़ सकेंगे जिनके दिमाग़ में उस क़िस्म खानासाज़ वाक़ेआत का ज़खीरा होगा जिसको वो अपने बाप-दादा या किसी खान बहादुर या राय बहादुर क़िस्म के रिश्तेदार मंसूब करके बयान करसकें। अगर जूते पर बात चली तो चाइनीज़ शू से शुरू हो कर इंग्लैंड के मोचियों तक पहुँचेगी, “अरे साहब, मैं तो यह देखकर ही पहचान गया था यह ऑक्सफ़ोर्ड का बना हुआ जूता है। ऐसा काफ़ यहाँ नापैद है। अब तो गौ हत्या के बाद और भी देखने को नसीब होगा। तरसते हैं साहब तरसते जो लोग आते जाते रहते हैं उनकी मेहरबानी से नसीब भी हो जाता है। भला बताइए दो सौ रुपये का जूता है तो क्या बात हुई पंद्रह-बीस साल तक हिलाए नहीं हिलेगा। जूता क्या है लाइफ़ पार्टनर है। अंग्रेज़ ही साहब बनाना भी जानते हैं और पहनना भी। क्या बात है साहब अंग्रेज़ों की भी अच्छा ख़ास बात ये है कि इसकी चमक में कभी फ़र्क़ नहीं आता, सिलवट प्रूफ़ है सिलवट प्रूफ़।”

    फिर टी सेट्स की तारीफ़ शुरू हो जाएगी जिसका नज़ला डब्लू आर ड्रोपर्स और लंदन टेलर्स की सूटिंग पर गिरेगा। उसके बाद मोटरों और साइकिलों पर बात शुरू हो जाएगी। उसमे अच्छे बुरे की तमीज़ शुरू कर दी जाएगी। नए माडलों के लेफ़्ट हैंड राइट हैंड ड्राइव के राज़ उगलना शुरू हो जाएंगे। बात करनेवाले उस वक़्त अपनी पुराणी साइकिलों को भूल जाएंगे जिनकी ख़ूबी ये है कि चलती हैं तो मालूम होता है, बुलबुल पाल राखी है जो नग़मा सराई करती जा रही है। कपड़ों का ज़िक्र करते वक़्त सब एक दूसरे से अपनी फटी कालरें छुपाते नज़र आएंगे। जब गार्डन पार्टीज़ और डिनर के ज़िक्र होते होंगे तो सब एक दुसरे से छीन छीन कर मूंगफली खाते होंगे जिसका कोई ज़िक्र नहीं।

    चौथी क़िस्म होती है उन तलबा की जो “सरफिरे” कहलाते हैं। आप उनको देखते ही ब-आसानी पहचान जाएंगे। उनके दस किताबें इधर और दस किताबें उधर बग़ल में होंगी और निहायत संभल संभल कर चलते हुए नज़र आएंगे। ये रहते हैं ख़्यालात की दुनिया में, बात इशारों में करते और चलते परछाईयों में हैं। ये किताबें पढ़ने के लिए नहीं बल्कि बांटने के लिए लाते हैं ताकि कुछ लोग उनसे मुतास्सिर हों, कुछ इबरत पकड़ें। उनकी मोटी मोटी किताबों के नाम और हवाले ज़बानी याद होते हैं। जब ये बात करते हैं तो पता चलता है कि किसी लाइब्रेरी का चपरासी बोल रहा है। आम तौर पर नादान लोग दिल ही दिल में उन पर पेच-ओ-ताब खाते हैं और मुँह पर उन्हें बर्दाश्त किए रहते हैं। जब ये आपसे मजबूरन बात करने के लिए रुकेंगे तो ये आपको सर से पैर तक एक गहरी नज़र से इस तरह देखेंगे जैसे कि ये किसी शीरख़्वार बच्चे पर शफ़क़त कर रहे हों। आप उनके सामने किसी बहुत क़ाबिल आदमी का नाम ले लीजिए, आपकी मुसीबत आजाएगी। फ़ौरन बहुत नफ़रत से संभल संभल कर और ठहर ठहर कर आँखें मीच मीच कर भौं सिकोड़कर बोलेंगे, “हुंह” फिर वो आपसे उन की बुराई शुरू करदेंगे। उनका दिन रात का ये काम है कि दुनिया भर में जो चीज़ें भी हो उस की ढूंढ ढूंढ कर बुराई निकालेंगे। अगर मुस्कुराना चाहेंगे तो हफ़्तों मुस्कुराने के लिए ज़मीन तैयार करेंगे। जी कड़ा करेंगे, और आख़िर में नाकाम रहेंगे। ऐसे लोगों की दुनिया भर तो शागिर्द होती है। अगर आप उनकी तारीफ़ करेंगे तो बस ग़ज़ब हो जाएगा। “आप जाहिल हैं। आप क्या समझें, माफ़ कीजिएगा। आपसे मिलने के लिए तो मुझे अपना मयार बहुत गिराकर बात करना पड़ती है। अगर कोई देखे तो आपका क्या जाएगा मेरी मुफ़्त में बदनामी होगी।” अगर आप उनकी तारीफ़ कर दें तो ये समझेंगे कि बेवक़ूफ़ बना रहा है। अगर आप अदब करें तो ये आपको बाज़ार पान लेने के लिए भेज देंगे।

    दर असल ये बेचारे इस दर्जा एहसास-ए-कमतरी का शिकार होते हैं कि दूसरों की पगड़ी उछालने में अपनी तस्कीन का सामान पाते हैं। दुनियाभर के तमाम आर्ट उन लोगों के सामने हेच होते हैं। ये हर वक़्त बड़े बड़े उलमा की तक़रीरों और तहरीरों पर नज़र-ए-सानी करते रहते हैं और उनकी इस्लाह की फ़िक्र में दुबले और बीमार रहते हैं। ये बेचारे सुबह से शाम तक निहायत मेहनत से दुशमन पैदा करते रहते हैं जो दे असल उनकी मताअ अज़ीज़ होती है। उनका अक़ीदा है कि लड़ाई झगड़े से बहस मुबाहिसे के नए नए पहलू निकलते हैं मगर इस सिलसिले में अक्सर मार भी खा जाते हैं और अपने किसी ख़ास अज़ीज़ को दुनिया सबसे बड़ा आर्टिस्ट मानकर उसको अपना आइडियल क़रार देते हैं। ये सुबह से शाम तक उसका ढिंढोरा पीटते रहते हैं जिनका जूनून ख़िरद की सरहदों को पार कर जाता है। वो अपने को फ़लसफ़ी कहलवाने के ख़ब्त में तरह तरह के सदमे उठाना शुरू करदेते हैं मगर एतबार उनको अपने बाप पर भी नहीं होता। इस एतबार से सदमे उठाते उठाते उनका मिज़ाज आशिक़ाना होजाता है जिसको हम शक्की मिज़ाज भी कह सकते हैं। ये अपना क़अबा अलग बनाने की फ़िक्र में हर वक़्त अपनी डेढ़ ईंट की मस्जिद अलग बनाते रहते हैं। मस्जिद तो नहीं बन पाती, हाँ उनकी दुर्गत ज़रूर बन जाती है। आपकी खैरियत इसी में है कि चाहे आग से खेलिए या कुंएं में छलांग लगाइए मगर उन अक़्ल-ए-कुल से उलझिए वरना वक़्त बर्बाद और रूह नाशाद होगी।

    पांचवें किस्म होती है उन तलबा की जो “ख़ाना नशीन” कहलाते हैं। ये बेचारे घर से गर्दन झुकाकर सीधे यूनीवर्सिटी पढ़ने आते हैं। ये बहू-बेटियां क्या जानें कि यूनीवर्सिटी में क्या होता है। इसका ग़म कि दुनिया में क्या हो रहा है, उन्हें इसकी फ़िक्र कि पहले क़ियामत आएगी या तीसरी आलमगीर जंग। दरहक़ीक़त ये दर्द-ए-दिल को दर्द-ए-जहाँ का दर्जा देने के सख़्त मुख़ालिफ़ हैं। यूनीवर्सिटी में पढ़ते हैं, फिर ठाठ से लाइब्रेरी में घुस जाते हैं और वहाँ से नोकदम घर की तरफ़ भागते हैं। उनको इस बात का ख़ौफ़ रहता है कि अगर देर हो गई तो कहीं अम्मी मारें या अगर रास्ते में किसी ने छेड़ दिया तो क्या होगा। अपनी इज़्ज़त अपने हाथ होती है। घर में घुसते ही ये फिर पढ़ना लिखना शुरू कर देते हैं। दूसरे दिन फिर उसी तरह से आते हैं और घंटा ख़त्म होने पर एक क्लास से दूसरे क्लास में इस तरह बे-तहाशा भाग कर घुसते हैं गोया उनको कोई क्लास में जाने से रोक रहा हो। आपस में जगह के लिए भी लड़ते हैं। ये किताब के कीड़े जब किताबों की दुनिया से बाहर आते हैं तो उनकी हालत क़ाबिल-ए-रहम होती है। इम्तहान में उनकी ज़्यादा तादाद फ़ेल होजाती है क्योंकि आजकल जनरल पर्चे ज़्यादा आते हैं जो उनके बस से बाहर होते हैं। जब ये हंसते हैं तो पता चलता है कि रो रहे हैं। रोएंगे तो मालूम होगा कि हंस रहे हैं। बात करेंगे तो मालूम होगा कि फाड़ खाएंगे। अगर आहिस्ता गुफ़्तगू करेंगे तो पता चलेगा कि कुछ मांग या सूंघ रहे हैं। आम तौर पर ये बहुत तंगनज़र होते हैं। हर चीज़ बहुत हक़ारत की नज़र से देखते हैं। उनके बारे में ये तै करना ज़रा मुश्किल है कि उनकी ज़िंदगी घर से शुरू होती है या यूनीवर्सिटी से, वैसे अगर उनको यूनीवर्सिटी की चलती फिरती मेज़ कहा जाए तो ग़ालिबन बेजा होगा।

    छटी क़िस्म होती है उन तलबा की जो ख़ैर से “खिलाड़ी” होते हैं और अपने खेल के लिए मशहूर भी। ये चौव्वा, पंजा और सिक्सर से कम बात नहीं करते। क्रिकेट भी उतना ही अच्छा खेलते हैं जितनी अच्छी कोमेंट्री सुनते हैं। ये जितने फुर्तीले होते हैं उसी क़दर पढ़ने लिखने में साफ़ होते हैं। उनकी ज़िंदगी मुस्तक़िल एक खेल का मैदान होती है, जिसमें ये बराबर रन बनाते रहते हैं। ये कभी कभी क्लासों में भी चले जाते हैं मगर सिर्फ़ मैच का चैलेंज देने, खिलाड़ी तलाश करने या टूर्नामेंट वग़ैरा के बारे में तै करने। दिन भर निहायत शिद्दत के साथ शाम का इंतज़ार करते हैं। खिलाड़ियों के ऊपर तब्सिरे करते रहते हैं। ये लोग टीम बनाकर खेलते हैं। लेकिन अगर टीम मिले तो अकेले खेलने से भी नहीं चूकते। अख़बार का लास्ट पेज (आख़िरी सफ़ा) बहुत शौक़ से देखते हैं। बाक़ी अख़बार अगर उनका बस चले तो बंद करवा के दम लें वरना उसको भी आख़िरी सफ़ा बनाकर छोड़ें। जब ये लोग खेल शुरू करते हैं तो उस वक़्त तक खेलते रहते हैं जब तक कि खेल ख़त्म होजाए।

    सातवीं क़िस्म होती है उन तलबा की जिनके ऊपर फ़िल्मी भूत सवार रहता है। ये फ़िल्म ज़दा कहलाते हैं और फ़िल्मी मालीख़ोलिया में मुब्तला रहते हैं। ये बातें करने में तशबीह और इस्तिआरे के ज़रिए एक्ट्रेस के नाम, मुक़ाम, वलदियत, सुकूनत वग़ैरा से काम निकालते हैं। उन्हें इससे ग़रज़ नहीं कि क्लास में क्या पढ़ाया जा रहा है। मगर ये आपको बतला देंगे कि कौन सी फ़िल्म में कौन कौन काम कर रहा है और आख़िर क्यों? ये आपको बआसानी समझा देंगे कि गोप और ग्लोब में क्या बुनियादी फ़र्क़ है जो हम आप में नहीं। ये फ़िल्मी पर्चे पढ़ते, फ़िल्मी मुअम्मे भरते और दिन दहाड़े हालीवुड के ख़्वाब देखा करते हैं। फ़िल्मी गाने उनको इस तरह याद होते हैं जिस तरह हमें आपको क़ौमी तराना याद हो। ये डॉलाग्स में बात करते और परछाइयों में चलते हैं। ग़रज़ कि हर वक़्त या तो आर्ट की दुनिया में रहते हैं वर्ना बम्बई भाग जाते हैं।

    तलबा की आठवीं क़िस्म “अदीब” कहलाती है और शायरी या अफ़सानानिगारी के मर्ज़ या तन्क़ीद के ख़ब्त में मुब्तला रहती है। ये आपस में कुछ इस तरह मिलते ही लड़ना शुरू कर देते हैं कि बस एक दूसरे को खा ही जाएंगे। मगर चूँकि उनका ग़ुस्सा सोडे का उबाल होता है, इसलिए फ़ौरन ही ऐसा घुल मिलकर बातें करना शुरू कर देते हैं कि बीच बचाओ का इरादा करने वाला दिल ही दिल में ख़ुदा का शुक्र बजा लाए कि अच्छा हुआ जो बीच में नहीं बोले वरना ख़्वाहमख़ाह शर्मिंदगी उठानी पड़ती। ये तो लड़भिड़ कर फिर एक हो गए। अदीब क़िस्म के तलबा पर हर वक़्त ख़ौफ़ तारी रहता है कि अदब पर जुमूद तारी है और उस जुमूद को ख़ुद अपने ऊपर इस तरह तारी करलेते हैं जैसे कोई खूसट बुढ़िया किसी जवान का सब्र समेट ले। उनका हाज़मा हमेशा बहुत ख़राब रहता है।

    “आजकल सारे अदीब थक चुके हैं। अब उनके पास कहने के कोई बात नहीं रह गई है। अदब को बचाइए। सख़्त ख़तरे में है। तुम लोग लिखो तो मेरी ज़िम्मेदारी कुछ कम हो।” गोया अदब के सारे छप्पर को आप ही की नाचीज़ हस्ती का सहारा रोके हुए है। मगर ये लोग अब तबर्रुक होते जा रहे हैं। देखिए इस तबर्रुक से कब महरूमी नसीब हो। कुछ हक़ीर फ़क़ीर क़िस्म के बिगड़े दिल अदीब ख़ुतूत के जवाब में मुदीरान-ए-रसाइल को मुतास्सिर करने के लिए अपने नाम के बजाए अपने फ़र्ज़ी सेक्रेटरी के दस्तख़त कर देते हैं। गोया ख़ुद अपने ही फ़र्ज़ी सेक्रेटरी की क़ायम मुक़ामी करते हैं और ख़ुतूत में ज़ाहिर करते हैं कि वो या तो अलील हैं या बाहर गए हुए हैं वरना बहुत सख़्त मसरूफ़ हैं। मैं आपका पैग़ाम उन तक पहुँचाने की कोशिश करूँगा। आप उनको पढ़ सकते हैं। उनसे बात नहीं कर सकते। ये अदब की ज़बान में अदीब कहलाते हैं और होते भी हैं बिल्कुल फ़्री स्टाइल। उन्हें मुल्क और क़ौम का मेमार कहा जाता है। जी हाँ, जहाँ मुल्क का पेड़ उखड़ा या कोई दीवार गिरी ये अपनी कन्नी बसुली लेकर उसकी मरम्मत के लिए पहुँच जाते हैं। उनकी कन्नी उनका क़लम होता है और रोशनाई को गारे के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। रह गई ईंट की बात तो उनके पथरीले अलफ़ाज़ ईंटों का काम देते हैं। मिसाल के तौर पर माबाद उल तबिआत,हिफ़्ज़-ए-मातक़द्दुम, सिलसिला-ए-लामतनाही और फ़लसफ़ा इज्तिमा बिल ज़िद्दैन और इसी तरह के दूसरे पथरीले अलफ़ाज़ यकजा करके ये मुल्क कौम की वो शानदार तामीर करते हैं कि तख़रीब को पहचानने में आसानी होजाती है।

    ये आपको ग्यारह बजे रात के बाद गिरोह की शक्ल में सड़कों पर फिरते नज़र आएंगे। पहले ये आपसे बग़लगीर हो कर आपकी जेबों का जुग़राफ़िया मालूम करेंगे। उसके बाद आप जब उनसे पूछिएगा कि “क्यों जनाब, आपने फ़लसफ़ा-ए-तंज़ पर(streptomycin) की लिखी हुई नई किताब पढ़ी है?” तो ये आपको नाउम्मीद करते हुए जवाब देंगे, “वैसे पढ़ तो डाली है मगर किताब में सिवाए हवालों के और कुछ नहीं।” लेकिन ख़ुदा के लिए आप उनसे जल कर ये कह दीजिएगा ये किताब “अवध मेडिकल स्टोर” से मिल सकती है। बहरहाल ये फ़ौरन मौज़ू बदल कर और एक थकी हुई अंगड़ाई ले कर कहेंगे, “अच्छा भाई चले, अभी एक आदिबा के यहाँ डिनर खाना है, फिर चाइना बाज़ार में दौर-ए-जाम है, उसके बाद अगर बख्शी की दुकान खुली रही तो अज़ीम शायर हिजाज़ लखनवी के साथ एक ग्रुप खिंचवाना है।” यह कहकर आपसे रुख्सत हो जाएंगे और फिर उन्हें शहर के कबड़िए मुश्कगंज के ताड़ीखाने से निकलते हुए देखेंगे। अगर ये कहीं बाहर से आए हैं तो अपने किसी मुख़लिस शागिर्द जिसकी अत्तार की दुकान होगी उससे दस-पांच रुपये उधार लेकर फिर वापस लौटेंगे जहाँ से आये थे।

    और वो लड़के जो लड़के नहीं लड़कियां होते हैं उनसे मिलो। कहाँ मिलना चाहते हो। ये घरों से आकर कैलाश हॉस्टल में रहने लगती हैं जिनके बारे में ये एक आम ख़्याल है कि ये उन्ही के लिए बनाया गया है और जहाँ शायद आपको याद हो कि कुछ लड़कों ने रात को “पशुपालन विभाग” का बोर्ड उसके दफ़्तर से उखाड़ कर जो उससे मिला हुआ है होस्टल के फाटक पर लगा दिया था और जिस पर एक आफ़त मच गई थी और यार लोगों के नाम हो गए थे और तब ही से उस हॉस्टल को “पशुपालन विभाग” का लक़ब दे दिया गया जहाँ कि ये मख़लूक़ पलती बढ़ती है। ये वहाँ से निकल कर कॉमन रुम में घुस जाती है जिसके बारे में ये एक आम ख़्याल है कि उसके अंदर उनकी नशिस्त-ओ-बर्ख़ास्त रहती है और जिसकी चिक की आधी से ज़्यादा तीलियाँ उन लोगों ने ख़िलाल कर करके ख़त्म कर दीं और इस तरह ताक झांक की एक नई राह पैदा करली। यहाँ से निकल कर आप उनको मुख़्तलिफ़ दर्जों में सबसे आगे बैठा हुआ पा सकते हैं। उनको सबसे आगे क्यों बिठलाया जाता है। इस के बारे में तजुर्बेकार प्रोफ़ेसरों का ख़्याल है कि कहीं ये लोग भी क्लासेज़ कट करने लगें। इस वजह से उनको दर्जे में सबसे आगे बिठा कर कड़ी नज़र रखी जाती है। कॉमन रुम के सामने जो घास के मैदान हैं उनमें उनके झुण्ड के झुण्ड उड़ते फैलते दिखाई पड़ेंगे। अगर उनमें कोई जवान किसी लड़के से बातचीत करती नज़र आए तो लोग कहते हैं, देखो इसको कहते हैं उर्फ़ नौजवान जोड़ा मगर ये सब फ्लर्ट करने वाली बातें हैं वरना ये सब तो चलता ही रहता है। यहाँ चूँकि तालीम साथ साथ दी जाती है इस वजह से लड़कियां लड़कों से अलग अलग रहती हैं और इसीलिए मस्लिहत का तक़ाज़ा है कि यूनीवर्सिटी के इन लड़कों को जो लड़कियां कहलाते हैं, फ़िलहाल बहस से अलग ही रखा जाए ताकि पढ़ने वालों का भला हो और पढ़ाने वाले भी ख़ैरियत से रहें।

    स्रोत:

    (Pg. 41)

      • प्रकाशक: पब्लिकेशंस डिवीज़न, दिल्ली

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