बहादुर शाह ज़फर: एक बादशाह जिसने शायरी में सुकून तलाश किया
बहादुर शाह ज़फर मुग़ल साम्राज्य के अंतिम राजा थे। कुल्लियात-ए-ज़फ़र उनकी शायरी का संग्रह है जो उनकी मृत्यु के बाद सामने आया। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दिनों को जिला-वतनी में बिताया। दिल्ली के विध्वंश की त्रासदी उनके अंतिम दिनों की ग़ज़लों में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। आईए इसे पढ़िए और देखिए इस चयन में बहादुर शाह ज़फर के कुछ प्रसिद्ध अशआर शामिल हैं।
तुम ने किया न याद कभी भूल कर हमें
हम ने तुम्हारी याद में सब कुछ भुला दिया
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कोई क्यूँ किसी का लुभाए दिल कोई क्या किसी से लगाए दिल
वो जो बेचते थे दवा-ए-दिल वो दुकान अपनी बढ़ा गए
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इन हसरतों से कह दो कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़-दार में
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कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
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बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तिरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी
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न थी हाल की जब हमें अपने ख़बर रहे देखते औरों के ऐब ओ हुनर
पड़ी अपनी बुराइयों पर जो नज़र तो निगाह में कोई बुरा न रहा
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हम अपना इश्क़ चमकाएँ तुम अपना हुस्न चमकाओ
कि हैराँ देख कर आलम हमें भी हो तुम्हें भी हो
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लगता नहीं है दिल मिरा उजड़े दयार में
किस की बनी है आलम-ए-ना-पाएदार में
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बुलबुल को बाग़बाँ से न सय्याद से गिला
क़िस्मत में क़ैद लिक्खी थी फ़स्ल-ए-बहार में
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ये क़िस्सा वो नहीं तुम जिस को क़िस्सा-ख़्वाँ से सुनो
मिरे फ़साना-ए-ग़म को मिरी ज़बाँ से सुनो
बुराई या भलाई गो है अपने वास्ते लेकिन
किसी को क्यूँ कहें हम बद कि बद-गोई से क्या हासिल
तमन्ना है ये दिल में जब तलक है दम में दम अपने
'ज़फ़र' मुँह से हमारे नाम उस का दम-ब-दम निकले
गई यक-ब-यक जो हवा पलट नहीं दिल को मेरे क़रार है
करूँ उस सितम को मैं क्या बयाँ मिरा ग़म से सीना फ़िगार है
सब मिटा दें दिल से हैं जितनी कि उस में ख़्वाहिशें
गर हमें मालूम हो कुछ उस की ख़्वाहिश और है
बहार आई शगूफ़ा फूला खुला है तख़्ता हर इक चमन का
कहीं तमाशा है यासमन का कहीं नज़ारा है नस्तरन का