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उस्तादों का उस्ताद है उस्ताद हमारा : मीर साहब की तारीफ़ में।

मीर तक़ी मीर की शख़्सियत और शायरी एक ग़ैरमामूली हैसियत की हामिल है,और इस बात का ऐतराफ़ बाद के आने वाले हर शायर ने अपने अपने अंदाज़ में पेश किया है। आईए हम इस कलेक्शन में ऐसे ही कुछ अहम शाइरों के अशआर पेश करते हैं जिसमें मीर साहब का ज़िक्र देखने को मिलता है।

रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'

कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था

मिर्ज़ा ग़ालिब

आशिक़ी में 'मीर' जैसे ख़्वाब मत देखा करो

बावले हो जाओगे महताब मत देखा करो

अहमद फ़राज़

शागिर्द हैं हम 'मीर' से उस्ताद के 'रासिख़'

उस्तादों का उस्ताद है उस्ताद हमारा

रासिख़ अज़ीमाबादी

इश्क़ बिन जीने के आदाब नहीं आते हैं

'मीर' साहब ने कहा है कि मियाँ इश्क़ करो

वाली आसी

'मीर' का रंग बरतना नहीं आसाँ 'दाग़'

अपने दीवाँ से मिला देखिए दीवाँ उन का

दाग़ देहलवी

शेर मेरे भी हैं पुर-दर्द व-लेकिन 'हसरत'

'मीर' का शेवा-ए-गुफ़्तार कहाँ से लाऊँ

हसरत मोहानी

'सौदा' तू इस ग़ज़ल को ग़ज़ल-दर-ग़ज़ल ही कह

होना है तुझ को 'मीर' से उस्ताद की तरफ़

मोहम्मद रफ़ी सौदा

गुज़रे बहुत उस्ताद मगर रंग-ए-असर में

बे-मिस्ल है 'हसरत' सुख़न-ए-'मीर' अभी तक

हसरत मोहानी

'हाली' सुख़न में 'शेफ़्ता' से मुस्तफ़ीद है

'ग़ालिब' का मो'तक़िद है मुक़ल्लिद है 'मीर' का

अल्ताफ़ हुसैन हाली

अब ख़ुदा मग़फ़िरत करे उस की

'मीर' मरहूम था अजब कोई

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

गो कि तू 'मीर' से हुआ बेहतर

'मुसहफ़ी' फिर भी 'मीर' 'मीर' ही है

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

'दाग़' के शेर जवानी में भले लगते हैं

'मीर' की कोई ग़ज़ल गाओ कि कुछ चैन पड़े

गणेश बिहारी तर्ज़

मैं हूँ क्या चीज़ जो उस तर्ज़ पे जाऊँ 'अकबर'

'नासिख़' 'ज़ौक़' भी जब चल सके 'मीर' के साथ

अकबर इलाहाबादी

शुबह 'नासिख़' नहीं कुछ 'मीर' की उस्तादी में

आप बे-बहरा है जो मो'तक़िद-ए-'मीर' नहीं

इमाम बख़्श नासिख़

'इक़बाल' की नवा से मुशर्रफ़ है गो 'नईम'

उर्दू के सर पे 'मीर' की ग़ज़लों का ताज है

हसन नईम

सख़्त मुश्किल था इम्तिहान-ए-ग़ज़ल

'मीर' की नक़्ल कर के पास हुए

फ़हमी बदायूनी

जब भी टूटा मिरे ख़्वाबों का हसीं ताज-महल

मैं ने घबरा के कही 'मीर' के लहजे में ग़ज़ल

ताहिर फ़राज़

तुम्हारी याद भी चुपके से के बैठ गई

ग़ज़ल जो 'मीर' की इक गुनगुना रहा था मैं

मोहसिन आफ़ताब केलापुरी

कल शाम छत पे मीर-तक़ी-'मीर' की ग़ज़ल

मैं गुनगुना रही थी कि तुम याद गए

अंजुम रहबर

सुनो मैं 'मीर' का दीवान समझता हूँ उसे

जो नमाज़ी हैं वो क़ुरआन समझते होंगे

अमीर इमाम

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