ख़ुर्शीद रिज़वी
ग़ज़ल 59
नज़्म 15
अशआर 27
तुम्हारी बज़्म से तन्हा नहीं उठा 'ख़ुर्शीद'
हुजूम-ए-दर्द का इक क़ाफ़िला रिकाब में था
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नुस्ख़ा-ए-मरहम-ए-इक्सीर बताने वाले
तू मिरा ज़ख़्म तो पहले मुझे वापस कर दे
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मक़ाम जिन का मुअर्रिख़ के हाफ़िज़े में नहीं
शिकस्त ओ फ़तह के मा-बैन मरहले हम लोग
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हैं मिरी राह का पत्थर मिरी आँखों का हिजाब
ज़ख़्म बाहर के जो अंदर नहीं जाने देते
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हम कि अपनी राह का पत्थर समझते हैं उसे
हम से जाने किस लिए दुनिया न ठुकराई गई
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