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शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ के शेर
ऐ शम्अ तेरी उम्र-ए-तबीई है एक रात
हँस कर गुज़ार या इसे रो कर गुज़ार दे
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टैग : शम्अ
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राहत के वास्ते है मुझे आरज़ू-ए-मर्ग
ऐ 'ज़ौक़' गर जो चैन न आया क़ज़ा के बाद
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मिरा घर तेरी मंज़िल गाह हो ऐसे कहाँ तालेअ'
ख़ुदा जाने किधर का चाँद आज ऐ माह-रू निकला
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तवाज़ो का तरीक़ा साहिबो पूछो सुराही से
कि जारी फ़ैज़ भी है और झुकी जाती है गर्दन भी
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बा'द रंजिश के गले मिलते हुए रुकता है दिल
अब मुनासिब है यही कुछ मैं बढ़ूँ कुछ तू बढ़े
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कितने मुफ़लिस हो गए कितने तवंगर हो गए
ख़ाक में जब मिल गए दोनों बराबर हो गए
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दिखाने को नहीं हम मुज़्तरिब हालत ही ऐसी है
मसल है रो रहे हो क्यूँ कहा सूरत ही ऐसी है
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पिला मय आश्कारा हम को किस की साक़िया चोरी
ख़ुदा से जब नहीं चोरी तो फिर बंदे से क्या चोरी
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आदमिय्यत और शय है इल्म है कुछ और शय
कितना तोते को पढ़ाया पर वो हैवाँ ही रहा
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तू जान है हमारी और जान है तो सब कुछ
ईमान की कहेंगे ईमान है तो सब कुछ
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उठते उठते मैं ने इस हसरत से देखा है उन्हें
अपनी बज़्म-ए-नाज़ से मुझ को उठा कर रो दिए
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बाक़ी है दिल में शैख़ के हसरत गुनाह की
काला करेगा मुँह भी जो दाढ़ी सियाह की
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मालूम जो होता हमें अंजाम-ए-मोहब्बत
लेते न कभी भूल के हम नाम-ए-मोहब्बत
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बोसा जो रुख़ का देते नहीं लब का दीजिए
ये है मसल कि फूल नहीं पंखुड़ी सही
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टैग : किस
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मौत ने कर दिया लाचार वगरना इंसाँ
है वो ख़ुद-बीं कि ख़ुदा का भी न क़ाइल होता
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तुम भूल कर भी याद नहीं करते हो कभी
हम तो तुम्हारी याद में सब कुछ भुला चुके
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टैग : याद
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कहते हैं आज 'ज़ौक़' जहाँ से गुज़र गया
क्या ख़ूब आदमी था ख़ुदा मग़्फ़िरत करे
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क्या जाने उसे वहम है क्या मेरी तरफ़ से
जो ख़्वाब में भी रात को तन्हा नहीं आता
पीर-ए-मुग़ाँ के पास वो दारू है जिस से 'ज़ौक़'
नामर्द मर्द मर्द-ए-जवाँ-मर्द हो गया
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टैग : शराब
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मस्जिद में उस ने हम को आँखें दिखा के मारा
काफ़िर की शोख़ी देखो घर में ख़ुदा के मारा
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रहता सुख़न से नाम क़यामत तलक है 'ज़ौक़'
औलाद से रहे यही दो पुश्त चार पुश्त
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टैग : शेर
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हम रोने पे आ जाएँ तो दरिया ही बहा दें
शबनम की तरह से हमें रोना नहीं आता
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हक़ ने तुझ को इक ज़बाँ दी और दिए हैं कान दो
इस के ये मअ'नी कहे इक और सुने इंसान दो
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गुल उस निगह के ज़ख़्म-रसीदों में मिल गया
ये भी लहू लगा के शहीदों में मिल गया
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रुलाएगी मिरी याद उन को मुद्दतों साहब
करेंगे बज़्म में महसूस जब कमी मेरी
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टैग : याद
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मज़कूर तिरी बज़्म में किस का नहीं आता
पर ज़िक्र हमारा नहीं आता नहीं आता
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याँ लब पे लाख लाख सुख़न इज़्तिराब में
वाँ एक ख़ामुशी तिरी सब के जवाब में
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एक आँसू ने डुबोया मुझ को उन की बज़्म में
बूँद भर पानी से सारी आबरू पानी हुई
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टैग : आँसू
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हो गया मौक़ूफ़ ये 'सौदा' का बिल्कुल एहतिराक़
लाला बे-दाग़-ए-सियह पाने लगा नश्व-ओ-नुमा
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कल जहाँ से कि उठा लाए थे अहबाब मुझे
ले चला आज वहीं फिर दिल-ए-बे-ताब मुझे
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एहसान ना-ख़ुदा का उठाए मिरी बला
कश्ती ख़ुदा पे छोड़ दूँ लंगर को तोड़ दूँ
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शुक्र पर्दे ही में उस बुत को हया ने रक्खा
वर्ना ईमान गया ही था ख़ुदा ने रक्खा
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टैग : हया
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असर-ए-नग़मा-ए-शीरीं से जहाँ भूल गया
कि सिवा राग के सम के है कोई और भी सम
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हमें नर्गिस का दस्ता ग़ैर के हाथों से क्यूँ भेजा
जो आँखें ही दिखानी थीं दिखाते अपनी नज़रों से
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टैग : रक़ीब
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लेते हैं समर शाख़-ए-समरवर को झुका कर
झुकते हैं सख़ी वक़्त-ए-करम और ज़ियादा
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दीं क्यों कि न वो दाग़-ए-अलम और ज़ियादा
क़ीमत में बढ़े दिल के दिरम और ज़ियादा
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बैठे भरे हुए हैं ख़ुम-ए-मय की तरह हम
पर क्या करें कि मोहर है मुँह पर लगी हुई
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जो कहोगे तुम कहेंगे हम भी हाँ यूँ ही सही
आप की गर यूँ ख़ुशी है मेहरबाँ यूँ ही सही
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मोअज़्ज़िन मर्हबा बर-वक़्त बोला
तिरी आवाज़ मक्के और मदीने
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फूल तो दो दिन बहार-ए-जाँ-फ़ज़ा दिखला गए
हसरत उन ग़ुंचों पे है जो बिन खिले मुरझा गए
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निकालूँ किस तरह सीने से अपने तीर-ए-जानाँ को
न पैकाँ दिल को छोड़े है न दिल छोड़े है पैकाँ को
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ऐ 'ज़ौक़' देख दुख़्तर-ए-रज़ को न मुँह लगा
छुटती नहीं है मुँह से ये काफ़र लगी हुई
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बे-क़रारी का सबब हर काम की उम्मीद है
ना-उमीदी हो तो फिर आराम की उम्मीद है
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मरज़-ए-इश्क़ जिसे हो उसे क्या याद रहे
न दवा याद रहे और न दुआ याद रहे
तुम जिसे याद करो फिर उसे क्या याद रहे
न ख़ुदाई की हो परवा न ख़ुदा याद रहे
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टैग : याद
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गया शैतान मारा एक सज्दा के न करने में
अगर लाखों बरस सज्दे में सर मारा तो क्या मारा
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ख़त बढ़ा काकुल बढ़े ज़ुल्फ़ें बढ़ीं गेसू बढ़े
हुस्न की सरकार में जितने बढ़े हिन्दू बढ़े
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दुनिया ने किस का राह-ए-फ़ना में दिया है साथ
तुम भी चले चलो यूँही जब तक चली चले
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टैग : दुनिया
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बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे
पर क्या करें जो काम न बे-दिल-लगी चले
हो उम्र-ए-ख़िज़्र भी तो हो मालूम वक़्त-ए-मर्ग
हम क्या रहे यहाँ अभी आए अभी चले
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