यासमीन हमीद
ग़ज़ल 28
नज़्म 7
अशआर 19
इतनी बे-रब्त कहानी नहीं अच्छी लगती
और वाज़ेह भी इशारे नहीं अच्छे लगते
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क्यूँ ढूँडने निकले हैं नए ग़म का ख़ज़ीना
जब दिल भी वही दर्द की दौलत भी वही है
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किसी के नर्म लहजे का क़रीना
मिरी आवाज़ में शामिल रहा है
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रस्ते से मिरी जंग भी जारी है अभी तक
और पाँव तले ज़ख़्म की वहशत भी वही है
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समुंदर हो तो उस में डूब जाना भी रवा है
मगर दरियाओं को तो पार करना चाहिए था
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