Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर
Iftikhar Arif's Photo'

इफ़्तिख़ार आरिफ़

1943 | इस्लामाबाद, पाकिस्तान

पाकिस्तान में अग्रणी शायरों में शामिल, अपनी सांस्कृतिक रूमानियत के लिए मशहूर।

पाकिस्तान में अग्रणी शायरों में शामिल, अपनी सांस्कृतिक रूमानियत के लिए मशहूर।

इफ़्तिख़ार आरिफ़ के शेर

57.8K
Favorite

श्रेणीबद्ध करें

तुम से बिछड़ कर ज़िंदा हैं

जान बहुत शर्मिंदा हैं

ज़माना हो गया ख़ुद से मुझे लड़ते-झगड़ते

मैं अपने आप से अब सुल्ह करना चाहता हूँ

बेटियाँ बाप की आँखों में छुपे ख़्वाब को पहचानती हैं

और कोई दूसरा इस ख़्वाब को पढ़ ले तो बुरा मानती हैं

ख़ाक में दौलत-ए-पिंदार-ओ-अना मिलती है

अपनी मिट्टी से बिछड़ने की सज़ा मिलती है

समुंदर के किनारे एक बस्ती रो रही है

मैं इतनी दूर हूँ और मुझ को वहशत हो रही है

दुनिया बदल रही है ज़माने के साथ साथ

अब रोज़ रोज़ देखने वाला कहाँ से लाएँ

रविश में गर्दिश-ए-सय्यारगाँ से अच्छी है

ज़मीं कहीं की भी हो आसमाँ से अच्छी है

जो हर्फ़-ए-हक़ की हिमायत में हो वो गुम-नामी

हज़ार वज़्अ के नाम-ओ-निशाँ से अच्छी है

ये मोजज़ा भी किसी की दुआ का लगता है

ये शहर अब भी उसी बे-वफ़ा का लगता है

ये तेरे मेरे चराग़ों की ज़िद जहाँ से चली

वहीं कहीं से इलाक़ा हवा का लगता है

दिल उन के साथ मगर तेग़ और शख़्स के साथ

ये सिलसिला भी कुछ अहल-ए-रिया का लगता है

मैं ज़िंदगी की दुआ माँगने लगा हूँ बहुत

जो हो सके तो दुआओं को बे-असर कर दे

मिरे ख़ुदा मुझे इतना तो मो'तबर कर दे

मैं जिस मकान में रहता हूँ उस को घर कर दे

मैं अपने ख़्वाब से कट कर जियूँ तो मेरा ख़ुदा

उजाड़ दे मिरी मिट्टी को दर-ब-दर कर दे

ये रौशनी के तआक़ुब में भागता हुआ दिन

जो थक गया है तो अब उस को मुख़्तसर कर दे

सिपाह-ए-शाम के नेज़े पे आफ़्ताब का सर

किस एहतिमाम से परवर-दिगार-ए-शब निकला

दर-ओ-दीवार इतने अजनबी क्यूँ लग रहे हैं

ख़ुद अपने घर में आख़िर इतना डर क्यूँ लग रहा है

रास आने लगी दुनिया तो कहा दिल ने कि जा

अब तुझे दर्द की दौलत नहीं मिलने वाली

घर से निकले हुए बेटों का मुक़द्दर मालूम

माँ के क़दमों में भी जन्नत नहीं मिलने वाली

ज़िंदगी भर की कमाई यही मिसरे दो-चार

इस कमाई पे तो इज़्ज़त नहीं मिलने वाली

यही लहजा था कि मेआर-ए-सुख़न ठहरा था

अब इसी लहजा-ए-बे-बाक से ख़ौफ़ आता है

वही चराग़ बुझा जिस की लौ क़यामत थी

उसी पे ज़र्ब पड़ी जो शजर पुराना था

वही फ़िराक़ की बातें वही हिकायत-ए-वस्ल

नई किताब का एक इक वरक़ पुराना था

तमाशा करने वालों को ख़बर दी जा चुकी है

कि पर्दा कब गिरेगा कब तमाशा ख़त्म होगा

कहानी में नए किरदार शामिल हो गए हैं

नहीं मा'लूम अब किस ढब तमाशा ख़त्म होगा

दुआ को हात उठाते हुए लरज़ता हूँ

कभी दुआ नहीं माँगी थी माँ के होते हुए

बस एक ख़्वाब की सूरत कहीं है घर मेरा

मकाँ के होते हुए ला-मकाँ के होते हुए

मैं चुप रहा कि वज़ाहत से बात बढ़ जाती

हज़ार शेवा-ए-हुस्न-ए-बयाँ के होते हुए

हमीं में रहते हैं वो लोग भी कि जिन के सबब

ज़मीं बुलंद हुई आसमाँ के होते हुए

एक चराग़ और एक किताब और एक उम्मीद असासा

उस के बा'द तो जो कुछ है वो सब अफ़्साना है

सुब्ह सवेरे रन पड़ना है और घमसान का रन

रातों रात चला जाए जिस को जाना है

ये सारी जन्नतें ये जहन्नम अज़ाब अज्र

सारी क़यामतें इसी दुनिया के दम से हैं

रंग से ख़ुशबुओं का नाता टूटता जाता है

फूल से लोग ख़िज़ाओं जैसी बातें करते हैं

ख़ुद को बिखरते देखते हैं कुछ कर नहीं पाते हैं

फिर भी लोग ख़ुदाओं जैसी बातें करते हैं

आजिज़ी बख़्शी गई तमकनत-ए-फ़क़्र के साथ

देने वाले ने हमें कौन सी दौलत नहीं दी

दिल कभी ख़्वाब के पीछे कभी दुनिया की तरफ़

एक ने अज्र दिया एक ने उजरत नहीं दी

हम भी इक शाम बहुत उलझे हुए थे ख़ुद में

एक शाम उस को भी हालात ने मोहलत नहीं दी

सब लोग अपने अपने क़बीलों के साथ थे

इक मैं ही था कि कोई भी लश्कर मिरा था

मैं जिस को एक उम्र सँभाले फिरा किया

मिट्टी बता रही है वो पैकर मिरा था

मआल-ए-इज़्ज़त-ए-सादात-ए-इश्क़ देख के हम

बदल गए तो बदलने पे इतनी हैरत क्या

कहाँ के नाम नसब इल्म क्या फ़ज़ीलत क्या

जहान-ए-रिज़्क़ में तौक़ीर-ए-अहल-ए-हाजत क्या

शिकम की आग लिए फिर रही है शहर-ब-शहर

सग-ए-ज़माना हैं हम क्या हमारी हिजरत क्या

कहीं कहीं से कुछ मिसरे एक-आध ग़ज़ल कुछ शेर

इस पूँजी पर कितना शोर मचा सकता था मैं

एक हम ही तो नहीं हैं जो उठाते हैं सवाल

जितने हैं ख़ाक-बसर शहर के सब पूछते हैं

अज़ाब-ए-वहशत-ए-जाँ का सिला माँगे कोई

नए सफ़र के लिए रास्ता माँगे कोई

बुलंद हाथों में ज़ंजीर डाल देते हैं

अजीब रस्म चली है दुआ माँगे कोई

वही है ख़्वाब जिसे मिल के सब ने देखा था

अब अपने अपने क़बीलों में बट के देखते हैं

तमाम ख़ाना-ब-दोशों में मुश्तरक है ये बात

सब अपने अपने घरों को पलट के देखते हैं

उमीद-ओ-बीम के मेहवर से हट के देखते हैं

ज़रा सी देर को दुनिया से कट के देखते हैं

हुआ है यूँ भी कि इक उम्र अपने घर गए

ये जानते थे कोई राह देखता होगा

Recitation

Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

GET YOUR PASS
बोलिए