बाज़ग़ बिहारी के शेर
वो कितनी झिड़कियाँ खाते हैं सुब्ह-ओ-शाम बीवी की
मगर वाइज़ को देखा आप ने आह-ओ-फ़ुग़ाँ करते
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तीन बेटे थे ख़ुदा के फ़ज़्ल से मेरे मगर
इन्ना लिल्लाह आख़िरी बेटा भी शाइ'र हो गया
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मसअला हो सामने तो इस का हल भी चाहिए
जब गला अच्छा हो तो अच्छी ग़ज़ल भी चाहिए
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ख़ुश्बू-ए-मुर्ग़ आती है हर लफ़्ज़ लफ़्ज़ से
करते हैं गुफ़्तुगू जो किसी मौलवी से हम
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उठाया जिस ने भी जूता बढ़ाया सर हम ने
क़ुसूर-वार बस अपना ही सर लगे है हमें
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मुँह अपना एक बार जला था जो दूध से
पीने लगे हैं फूँक के मठ्ठा तभी से हम
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बड़ा एहसान है बेगम सुधारा आप ने मुझ को
वगर्ना ज़िंदगी कटती मिरी ख़र-मस्तियाँ करते
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