आकाश 'अर्श'
ग़ज़ल 15
नज़्म 2
अशआर 8
सब अपनी ज़ात में इक अंजुमन के मुजरिम हैं
किसी वजूद में कुछ फ़र्द जैसा है ही नहीं
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मैं ख़ुद को देखता हूँ और भी हिक़ारत से
जब अपना मर्तबा तस्लीम करने लगता हूँ
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मैं तेरे हदिया-ए-फुर्क़त पे कैसे नाज़ाँ हूँ
मिरी जबीं पे तिरा ज़ख़्म तक हसीन नहीं
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ये कौन तेरे सिवा कर सका उदास मुझे
तिरे ख़याल ने छेड़ी थी गुफ़्तुगू किस की
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