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आकाश 'अर्श'

2001 | दिल्ली, भारत

नौजवान उर्दू शाइर

नौजवान उर्दू शाइर

आकाश 'अर्श'

ग़ज़ल 4

 

नज़्म 2

 

अशआर 7

सब अपनी ज़ात में इक अंजुमन के मुजरिम हैं

किसी वजूद में कुछ फ़र्द जैसा है ही नहीं

मैं तेरे हदिया-ए-फुर्क़त पे कैसे नाज़ाँ हूँ

मिरी जबीं पे तिरा ज़ख़्म तक हसीन नहीं

किसी परिंद की चीख़ों ने संग-बारी की

सुकूत-ए-शाम का शीशा बिखर गया मुझ में

बैठा हुआ हूँ लग के दरीचे से महव-ए-यास

ये शाम आज मेरे बराबर उदास है

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हर एक सम्त तिरी याद का धुँदलका है

तिरे ख़याल का सूरज उतर गया मुझ में

लेख 2

 

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