आकाश 'अर्श'
ग़ज़ल 4
नज़्म 2
अशआर 7
सब अपनी ज़ात में इक अंजुमन के मुजरिम हैं
किसी वजूद में कुछ फ़र्द जैसा है ही नहीं
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मैं तेरे हदिया-ए-फुर्क़त पे कैसे नाज़ाँ हूँ
मिरी जबीं पे तिरा ज़ख़्म तक हसीन नहीं
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किसी परिंद की चीख़ों ने संग-बारी की
सुकूत-ए-शाम का शीशा बिखर गया मुझ में
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हर एक सम्त तिरी याद का धुँदलका है
तिरे ख़याल का सूरज उतर गया मुझ में
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