असद अली ख़ान क़लक़ के शेर
अदा से देख लो जाता रहे गिला दिल का
बस इक निगाह पे ठहरा है फ़ैसला दिल का
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अपने बेगाने से अब मुझ को शिकायत न रही
दुश्मनी कर के मिरे दोस्त ने मारा मुझ को
ऐ बे-ख़ुदी-ए-दिल मुझे ये भी ख़बर नहीं
किस दिन बहार आई मैं दीवाना कब हुआ
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टैग : बेख़ुदी
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आख़िर इंसान हूँ पत्थर का तो रखता नहीं दिल
ऐ बुतो इतना सताओ न ख़ुदा-रा मुझ को
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टैग : इंसान
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दस्त-ए-जुनूँ ने फाड़ के फेंका इधर-उधर
दामन अबद में है तो गरेबाँ अज़ल में है
फिर मुझ से इस तरह की न कीजेगा दिल-लगी
ख़ैर इस घड़ी तो आप का मैं कर गया लिहाज़
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होंठों में दाब कर जो गिलौरी दी यार ने
क्या दाँत पीसे ग़ैरों ने क्या क्या चबाए होंठ
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टैग : पान
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आसार-ए-रिहाई हैं ये दिल बोल रहा है
सय्याद सितमगर मिरे पर खोल रहा है
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टैग : उम्मीद
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ख़फ़ा हो गालियाँ दो चाहे आने दो न आने दो
मैं बोसे लूँगा सोते में मुझे लपका है चोरी का
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ज़मीन पाँव के नीचे से सरकी जाती है
हमें न छेड़िए हम हैं फ़लक सताए हुए
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रस्ते में उन को छेड़ के खाते हैं गालियाँ
बाज़ार की मिठाई भी होती है क्या लज़ीज़
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करेंगे हम से वो क्यूँकर निबाह देखते हैं
हम उन की थोड़े दिनों और चाह देखते हैं
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करो तुम मुझ से बातें और मैं बातें करूँ तुम से
कलीम-उल्लाह हो जाऊँ मैं एजाज़-ए-तकल्लुम से
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यही इंसाफ़ तिरे अहद में है ऐ शह-ए-हुस्न
वाजिब-उल-क़त्ल मोहब्बत के गुनहगार हैं सब
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ख़ुदा-हाफ़िज़ है अब ऐ ज़ाहिदो इस्लाम-ए-आशिक़ का
बुतान-ए-दहर ग़ालिब आ गए हैं का'बा-ओ-दिल पर
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याद दिलवाइए उन को जो कभी वादा-ए-वस्ल
तो वो किस नाज़ से फ़रमाते हैं हम भूल गए
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बना कर तिल रुख़-ए-रौशन पर दो शोख़ी से से कहते हैं
ये काजल हम ने यारा है चराग़-ए-माह-ए-ताबाँ पर
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चला है छोड़ के तन्हा किधर तसव्वुर-ए-यार
शब-ए-फ़िराक़ में था तुझ से मश्ग़ला दिल का
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उम्र तो अपनी हुई सब बुत-परस्ती में बसर
नाम को दुनिया में हैं अब साहब-ए-इस्लाम हम
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हिम्मत का ज़ाहिदों की सरासर क़ुसूर था
मय-ख़ाना ख़ानक़ाह से ऐसा न दूर था
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सितम वो तुम ने किए भूले हम गिला दिल का
हुआ तुम्हारे बिगड़ने से फ़ैसला दिल का
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वो एक रात तो मुझ से अलग न सोएगा
हुआ जो लज़्ज़त-ए-बोस-ओ-कनार से वाक़िफ़
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ऐ परी-ज़ाद जो तू रक़्स करे मस्ती में
दाना-ए-ताक हर इक पाँव में घुंघरू हो जाए
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सिंदूर उस की माँग में देता है यूँ बहार
जैसे धनक निकलती है अब्र-ए-सियाह में
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क्या कोई दिल लगा के कहे शे'र ऐ 'क़लक़'
नाक़द्री-ए-सुख़न से हैं अहल-ए-सुख़न उदास
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मंज़िल है अपनी अपनी 'क़लक़' अपनी अपनी गोर
कोई नहीं शरीक किसी के गुनाह में
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रुख़ तह-ए-ज़ुल्फ़ है और ज़ुल्फ़ परेशाँ सर पर
माँग बालों में नहीं है ये नुमायाँ सर पर
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खुलने से एक जिस्म के सौ ऐब ढक गए
उर्याँ-तनी भी जोश-ए-जुनूँ में लिबास है
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वो रिंद हूँ कि मुझे हथकड़ी से बैअत है
मिला है गेसू-ए-जानाँ से सिलसिला दिल का
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मैं वो मय-कश हूँ मिली है मुझ को घुट्टी में शराब
शीर के बदले पिया है मैं ने शीरा ताक का
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ख़त में लिक्खी है हक़ीक़त दश्त-गर्दी की अगर
नामा-बर जंगली कबूतर को बनाना चाहिए
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यार की फ़र्त-ए-नज़ाकत का हूँ मैं शुक्र-गुज़ार
ध्यान भी उस का मिरे दिल से निकलने न दिया
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घाट पर तलवार के नहलाईयो मय्यत मिरी
कुश्ता-ए-अबरू हूँ मैं क्या ग़ुस्ल-ख़ाना चाहिए
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नया मज़मून लाना काटना कोह-ओ-जबल का है
नहीं हम शेर कहते पेशा-ए-फ़र्हाद कहते हैं
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आलम-ए-पीरी में क्या मू-ए-सियह का ए'तिबार
सुब्ह-ए-सादिक़ देती है झूटी गवाही रात की
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मुझ से उन आँखों को वहशत है मगर मुझ को है इश्क़
खेला करता हूँ शिकार आहु-ए-सहराई का
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छेड़ा अगर मिरे दिल-ए-नालाँ को आप ने
फिर भूल जाइएगा बजाना सितार का
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बहार आते ही ज़ख़्म-ए-दिल हरे सब हो गए मेरे
उधर चटका कोई ग़ुंचा इधर टूटा हर इक टाँका
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पूछा सबा से उस ने पता कू-ए-यार का
देखो ज़रा शुऊ'र हमारे ग़ुबार का
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हुआ मैं रिंद-मशरब ख़ाक मर कर इस तमन्ना में
नमाज़ आख़िर पढ़ेंगे वो किसी दिन तो तयम्मुम से
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कोताह उम्र हो गई और ये न कम हुई
ऐ जान आ के तूल-ए-शब-ए-इंतिज़ार देख
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जब हुआ गर्म-ए-कलाम-ए-मुख़्तसर महका दिया
इत्र खींचा यार के लब ने गुल-ए-तक़रीर का
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कुफ्र-ओ-इस्लाम के झगड़ों से छुड़ाया सद-शुक्र
क़ैद-ए-मज़हब से जुनूँ ने मुझे आज़ाद किया
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दिल ख़स्ता हो तो लुत्फ़ उठे कुछ अपनी ग़ज़ल का
मतलब कोई क्या समझेगा मस्तों की ज़टल का
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तिरे होंठों से शर्मा कर पसीने में हुआ ये तर
ख़िज़र ने ख़ुद अरक़ पोंछा जबीन-ए-आब-ए-हैवाँ का
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मिसाल-ए-आइना हम जब से हैरती हैं तिरे
कि जिन दिनों में न था तू सिंगार से वाक़िफ़
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उन वाइ'ज़ों की ज़िद से हम अब की बहार में
तोड़ेंगे तौबा पीर-ए-मुग़ाँ की दुकान पर
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मय जो दी ग़ैर को साक़ी ने कराहत देखो
शीशा-ए-मय को मरज़ हो गया उबकाई का
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ख़ुश-क़दों से कभी आलम न रहेगा ख़ाली
इस चमन से जो गया सर्व तो शमशाद आया
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मुदल्लल जो सुख़न अपना है वो बुर्हान-ए-क़ातेअ' है
तबीअत में रवानी है ज़ियादा हफ़्त-क़ुल्ज़ुम से
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