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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

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बाक़र मेहदी

1927 - 2006 | मुंबई, भारत

प्रमुख आलोचक, अपनी बेबाकी और परम्परा-विरोध के लिए विख्यात

प्रमुख आलोचक, अपनी बेबाकी और परम्परा-विरोध के लिए विख्यात

बाक़र मेहदी

लेख 14

उद्धरण 19

इस्तिलाहें अपने मआ'नी खोती हैं, ये एक तारीख़ी हक़ीक़त है। मैं इससे इंकार नहीं करना चाहता। लेकिन ये भी ‎तारीख़ी ‎‏हक़ीक़त है कि उन्हें नए मआ'नी-ओ-मफ़हूम देकर फिर तर-ओ-ताज़ा किया जाता है और इस तरह ख़िज़ाँ ‎और बहार के मौसम इस्तिलाहों ‎‏की दुनिया में भी आते रहते हैं।

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इंसानी तारीख़ एक मआ'नी में इक़्तिदार की जंग की तारीख़ कही जा सकती है।

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हम आज के दौर को इसलिए तनक़ीदी दौर कहते हैं कि तख़लीक़ी अदब की रफ़्तार कम है और मे'यारी चीज़ें नहीं ‎लिखी जा रही ‎‏हैं।

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जदीदीयत ने दुनिया को जन्नत-अर्ज़ी बनाने का बीड़ा उठा कर जहन्नुम नहीं बनाया है जैसा कि तरक़्क़ी-पसंदी ने ‎किया है।‏

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मआ'शी क़ुव्वतें उन पोशीदा धारों की तरह हैं जो अंदर बहते रहते हैं और आहिस्ता-आहिस्ता किनारों को काटते हुए ‎अपने नई ‎‏जगह बनाते जाते हैं।

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रेखाचित्र 2

 

अशआर 20

एक तूफ़ाँ की तरह कब से किनारा-कश है

फिर भी 'बाक़र' मिरी नज़रों में भरम है उस का

चले तो जाते हो रूठे हुए मगर सुन लो

हर एक मोड़ पे कोई तुम्हें सदा देगा

दामन-ए-सब्र के हर तार से उठता है धुआँ

और हर ज़ख़्म पे हंगामा उठा आज भी है

फ़ासले ऐसे कि इक उम्र में तय हो सकें

क़ुर्बतें ऐसी कि ख़ुद मुझ में जनम है उस का

ये सोच कर तिरी महफ़िल से हम चले आए

कि एक बार तो बढ़ जाए हौसला दिल का

ग़ज़ल 34

नज़्म 20

रुबाई 30

पुस्तकें 48

ऑडियो 20

अब ख़ानुमाँ-ख़राब की मंज़िल यहाँ नहीं

इश्क़ की सारी बातें ऐ दिल पागल-पन की बातें हैं

इस दर्जा हुआ ख़ुश कि डरा दिल से बहुत मैं

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