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सौ डेढ़ सौ बरस के अंदर उर्दू और हिन्दी मिलकर एक ज़बान बन जाएँगी। जिसकी रूह और कल्चर एक होगा। उर्दू और हिन्दी में न किसी की हार होगी न जीत, ज़िंदगी की जीत होगी।
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अब से पचास बरस बाद मेरा ख़्याल नहीं बल्कि मेरा यक़ीन है कि हमारी ज़बान रोमन रस्म-उल-ख़त मुस्तक़िल तौर पर इख़्तियार कर लेगी और हिन्दी-उर्दू का क़दीम-ओ-जदीद तमाम अदब रोमन रस्म-उल-ख़त में दीदा-ज़ेब शक्ल में निहायत सस्ते दामों मिलने लगेगा।
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अवाम में और बड़े अदीब में यह फ़र्क़ नहीं होता कि अवाम कम लफ़्ज़ जानती है और अदीब ज़ियादा लफ़्ज़ जानता है। इन दोनों में फ़र्क़ यह होता है कि अवाम को अपने लफ़्ज़ हर मौक़े पर याद नहीं आते। अवाम अपने लफ़्ज़ों को हैरत-अंगेज़ तौर पर मिला कर फ़िक़रे नहीं बना सकते, उन्हें ज़ोरदार तरीक़े पर इस्तिमाल नहीं कर सकते, लेकिन अदीब अवाम ही के अलफ़ाज़ से ये सब कुछ कर के दिखा देता है।
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उर्दू को मिटा देना हिन्दी के लिए अच्छा नहीं है। हिन्दी को मिटा देना उर्दू के लिए अच्छा नहीं है। हिन्दी और उर्दू दोनों एक ही तस्वीर के दो रुख़ हैं।
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वही शायरी अमर होती है या बहुत दिनों तक ज़िंदा रहती है जिसमें ज़्यादा से ज़्यादा लफ़्ज़ ऐसे आएं जिन्हें अनपढ़ लोग भी जानते और बोलते हैं।
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हमारी बोली एक जीती-जागती चीज़ है। अगर इसमें संस्कृत के वो लफ़्ज़ भरे जाएंगे, जो कोई बोलता नहीं तो ये गाड़ी आगे नहीं बढ़ेगी। अब हिन्दी और उर्दू वाले ख़ुद फ़ैसला करें कि अगर हिन्दी-उर्दू की लड़ाई में जीत आसान ज़बान की होगी तो जीत उर्दू की होगी या हिन्दी की।
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ज़िंदगी को दाख़िली सेहत बख़्शना फुनून-ए-लतीफ़ा का असल मक़्सद है।
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वो दिन कब आ जाएगा कि हिंदू तालिब-ए-इल्म अनीस को सबसे बड़ा शायर बताएगा और मुस्लमान तालिब-ए-इल्म तुलसी दास को अनीस से दस गुना बड़ा ठहराएगा। हिंदू तालिब-ए-इल्म उर्दू ग़ज़लों पर जान देगा और मुस्लमान तालिब-ए-इल्म महादेवी के नर्म, रसीले और दिल में उतर जाने वाले नग़्मों की क़सम खाएगा।
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जमहूरी अदब के लिए ख़रीदारों का सवाल ज़िंदगी और मौत का सवाल है।
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ज़िंदगी के ख़ारिजी मसाइल का हल शायरी नहीं, लेकिन वो दाख़िली मसाइल का हल ज़रूर है।
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अगर हम शेर से सही तौर पर मुतास्सिर हों तो शायर के कलाम में उसके दिल की सवानेह-ए-उम्री, उसकी विज्दानी शख़्सियत का इर्तिक़ा देख सकते हैं।
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ख़ुशनसीब से ख़ुशनसीब आशिक़ को इश्क़िया नग़मे सहारा देते हैं। पूरी इन्सानी तहज़ीब-ओ-तमद्दुन, तमाम ख़ारिजी तमतराक़ के बावजूद फुनूने लतीफ़ा की मोहताज है।
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ग़म का भी एक तरबिया पहलू होता है और निशात का भी एक अलमिया पहलू होता है।
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अमूमन बुलंद इश्क़िया शायरी करने वाला शायर ग़ैर-मामूली शिद्दत-ए-जज़्बात-ओ-एहसासात के साथ आशिक़ भी होता है।
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सबसे बड़ी ज़रूरत इस बात की है कि मुल्क के जिन स्कूलों, कॉलिजों और यूनिवर्सिटियों में उर्दू और हिन्दी के अलग-अलग दर्जे, शोबे या क्लास हैं, उन्हें तोड़ कर एक कर दिया जाये।
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किसी क़ौम को अहमक़ बनाना हो तो उस क़ौम के बच्चों को आसान और सहज लफ़्ज़ों के बदले जबड़ा तोड़ लफ़्ज़ घुँटवा दीजिए। सब बच्चे अहमक़ हो जाएंगे।
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ज़बान शुऊर का हाथ-पैर है।
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ग़ज़ल वो बाँसुरी है जिसे ज़िंदगी की हलचल में हमने कहीं खो दिया था और जिसे ग़ज़ल का शायर कहीं से फिर से ढूंढ लाता है और जिसकी लय सुनकर भगवान की आँखों में भी इन्सान के लिए मुहब्बत के आँसू आ जाते हैं।
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सोज़-ओ-गुदाज़ में जब पुख़्तगी आ जाती है तो ग़म, ग़म नहीं रहता बल्कि एक रुहानी संजीदगी में बदल जाता है।
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क़ौम और क़ौमी ज़िंदगी मिट रही है और हम हैं कि हिन्दी हिन्दी और उर्दू उर्दू किए जा रहे हैं।
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मौजूदा तमद्दुन के मुतालबे ऐसे हैं कि हमें रोमन रस्म-उल-ख़त को अपनाना पड़ेगा।
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शायरी का मक़सद हम जो कुछ भी समझें उसका हक़ीक़ी मक़सद बुलंद-तरीन विजदानी कैफ़ियात और जमालियाती शुऊर पैदा करने के अलावा कुछ नहीं।
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जो शख़्स या जो जमाअत यह कहे कि सिर्फ़ हिन्दी अदब ने हमारे कल्चर की सेवा की और उर्दू ने हमारे कल्चर को नुक़्सान पहुँचाया या सिर्फ़ उर्दू ने हमारे कल्चर की सेवा की और हिन्दी ने हमारे कल्चर को नुक़्सान पहुँचाया, उस शख़्स और जमाअत को कल्चर के मुताल्लिक़ राय देने का कोई हक़ नहीं है।
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फुनून-ए-लतीफ़ा के बग़ैर तमद्दुन बीमार पड़ जाता है और एक बीमारी नहीं सैकड़ों बीमारियों का शिकार हो जाता है।
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रटे हुए लफ़्ज़ों से बड़ा अदब नहीं बना करता।
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