इन्दिरा वर्मा के शेर
तुम्हारे बिना सब अधूरे हैं जानाँ
सबा फूल ख़ुश-बू चमन रौशनी रंग
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ये शफ़क़ चाँद सितारे नहीं अच्छे लगते
तुम नहीं हो तो नज़ारे नहीं अच्छे लगते
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वक़्त ख़ामोश है टूटे हुए रिश्तों की तरह
वो भला कैसे मिरे दिल की ख़बर पाएगा
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यही फ़साना रहा है जुनूँ के सहरा में
कभी फ़िराक़ के क़िस्से कभी विसाल की बात
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शिकस्ता-दिल अँधेरी शब अकेला राहबर क्यूँ हो
न हो जब हम-सफ़र कोई तो अपना भी सफ़र क्यूँ हो
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किताब-ए-ज़ीस्त का उनवान बन गए हो तुम
हमारे प्यार की देखो ये इंतिहा साहब
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आप का लहजा शहद जैसा तरन्नुम-ख़ेज़ है
ख़ामुशी अब तोड़िए और बोलिए मेरे लिए
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अभी से कैसे कहूँ तुम को बेवफ़ा साहब
अभी तो अपने सफ़र की है इब्तिदा साहब
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रौशनी फूट निकली मिसरों से
चाँद को जब ग़ज़ल में सोचा है
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ये कैसी वक़्त ने बदली है करवट
फ़रेब-ए-ज़िंदगी है और मैं हूँ
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सिला दिया है मोहब्बत का तुम ने ये कैसा
मसर्रतों में भी रोने लगी हैं अब आँखें
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शाख़-दर-शाख़ होती है ज़ख़्मी
जब परिंदा शिकार होता है
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ज़िंदगी आज तेरा लुत्फ़ ओ करम
कम अगर है तो आज कम ही सही
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मिरी चाहतों में ग़ुरूर हो दिल-ए-ना-तवाँ में सुरूर हो
तुम्हें अब के खाना है वो क़सम कि फ़रेब में भी यक़ीन हो
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ये रौशनी तिरे कमरे में ख़ुद नहीं आई
शम्अ का जिस्म पिघलने के बाद आई है
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बहार आई तो खुल कर कहा है फूलों ने
ये किस ने छेड़ दी गुलशन में फिर जमाल की बात
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किस ख़ता की सज़ा मिली उस को
किस लिए रोज़ घटता बढ़ता है
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बहारों के आँचल में ख़ुश-बू छुपी है
गुलों की क़बा में भरे हैं सभी रंग
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कैसे सहरा में भटकता है मिरा तिश्ना-लब
कैसी बस्ती है जहाँ मिलता नहीं पानी तक
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उस से मत कहना मिरी बे-सर-ओ-सामानी तक
वो न आ जाए कहीं मिरी परेशानी तक
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तमाम फ़िक्र ज़माने की टाल देता है
ये कैसा कैफ़ तुम्हारा ख़याल देता है
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