मरग़ूब अली के शेर
भीगी मिट्टी की महक प्यास बढ़ा देती है
दर्द बरसात की बूँदों में बसा करता है
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सब मुमकिन था प्यार मोहब्बत हँसते चेहरे ख़्वाब-नगर
लेकिन एक अना ने कितने भोले दिन बर्बाद किए
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हक़ीक़ी चेहरा कहीं पर हमें नहीं मिलता
सभी ने चेहरे पे डाले हैं मस्लहत के नक़ाब
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कुर्सी मेज़ किताबें? बिस्तर अनजाने से तकते हैं
देर से अपने घर जाएँ तो सब कुछ यूँही लगता है
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ऐसा न हो कि ताज़ा हवा अजनबी लगे
कमरे का एक-आध दरीचा खुला भी रख
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वस्ल का गुल न सही हिज्र का काँटा ही सही
कुछ न कुछ तो मिरी वहशत का सिला दे मुझ को
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मैं उस को भूल जाऊँ रात ये माँगी दुआ मैं ने
करूँ क्या मैं अगर मेरी दुआ वापस पलट आए
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हमें तो याद बहुत आया मौसम-ए-गुल में
वो सुर्ख़ फूल सा चेहरा खिला हुआ अब के
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रात पड़ते ही हर इक रोज़ उभर आती है
किस के रोने की सदा ज़ात के सन्नाटे में
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