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मीर अहमद नवेद

1955 | पाकिस्तान

मीर अहमद नवेद के शेर

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मैं अपने हिज्र में था मुब्तला अज़ल से मगर

तिरे विसाल ने मुझ से मिला दिया है मुझे

ज़ख़्म-ए-तलाश में है निहाँ मरहम-ए-दलील

तू अपना दिल हार मोहब्बत बहाल रख

कुछ इस तरह से कहा मुझ से बैठने के लिए

कि जैसे बज़्म से उस ने उठा दिया है मुझे

चराग़-हा-ए-तकल्लुफ़ बुझा दिए गए हैं

उठाओ जाम कि पर्दे उठा दिए गए हैं

ख़लिश बोल क्या यही है ख़ुदा

ये जो दिल में ख़ला सा रहता है

ख़ुद से गुज़रे तो क़यामत से गुज़र जाएँगे हम

यानी हर हाल की हालत से गुज़र जाएँगे हम

पेश-ए-ज़मीं रहूँ कि पस-ए-आसमाँ रहूँ

रहता हूँ अपने साथ मैं चाहे जहाँ रहूँ

जो मिल गए तो तवंगर मिल सके तो गदा

हम अपनी ज़ात के अंदर छुपा दिए गए हैं

मुमकिन नहीं है शायद दोनों का साथ रहना

तेरी ख़बर जब आई अपनी ख़बर गई है

रात उस बज़्म में तस्वीर के मानिंद थे हम

हम से पूछे तो कोई शम्अ का जलना क्या था

दबा सका सदा उस की तेरी बज़्म का शोर

ख़मोश रह के भी कोई सदा बना हुआ है

वक़्त तू कहीं भी किसी का हुआ है क्या

क्या तुझ को देखना तिरी साअत को देखना

मैं कहीं आऊँ मैं कहीं जाऊँ

वक़्त जैसे रुका सा रहता है

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