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मुबारक अज़ीमाबादी

1896 - 1959 | पटना, भारत

बिहार के प्रमुख उत्तर-क्लासिकी शायर

बिहार के प्रमुख उत्तर-क्लासिकी शायर

मुबारक अज़ीमाबादी के शेर

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जो उन को चाहिए वो किए जा रहे हैं वो

जो मुझ को चाहिए वो किए जा रहा हूँ मैं

दिल लगाते ही तो कह देती हैं आँखें सब कुछ

ऐसे कामों के भी आग़ाज़ कहीं छुपते हैं

तुम भूल गए मुझ को यूँ याद दिलाता हूँ

जो आह निकलती है वो याद-दहानी है

अब वही सैद है जो था सय्याद

नाला बुलबुल का बे-असर हुआ

फिर दरमाँ का कभी नाम 'मुबारक' लेना

कुफ़्र है दर्द-ए-मोहब्बत का मुदावा करना

किसी की तमन्ना निकलती रही

मिरी आरज़ू हाथ मलती रही

मिरी ख़ाक भी उड़ेगी बा-अदब तिरी गली में

तिरे आस्ताँ से ऊँचा मिरा ग़ुबार होगा

किसी ने बर्छियाँ मारीं किसी ने तीर मारे हैं

ख़ुदा रक्खे इन्हें ये सब करम-फ़रमा हमारे हैं

क़ुबूल हो कि हो सज्दा सलाम अपना

तुम्हारे बंदे हैं हम बंदगी है काम अपना

तेरी बख़्शिश के भरोसे पे ख़ताएँ की हैं

तेरी रहमत के सहारे ने गुनहगार किया

मुझ को मालूम है अंजाम-ए-मोहब्बत क्या है

एक दिन मौत की उम्मीद पे जीना होगा

तुम को समझाए 'मुबारक' कोई क्यूँकर अफ़्सोस

तुम तो रोने लगे यार और भी समझाने से

बेवफ़ा उम्र दग़ाबाज़ जवानी निकली

यही रहती है ज़ालिम वही रहती है

आने में कभी आप से जल्दी नहीं होती

जाने में कभी आप तवक़्क़ुफ़ नहीं करते

शिकस्त-ए-तौबा की तम्हीद है तिरी तौबा

ज़बाँ पे तौबा 'मुबारक' निगाह साग़र पर

उस गली में हज़ार ग़म टूटा

आना जाना मगर नहीं छूटा

कल तो देखा था 'मुबारक' बुत-कदे में आप को

आज हज़रत जा के मस्जिद में मुसलमाँ हो गए

क्या कहें क्या क्या किया तेरी निगाहों ने सुलूक

दिल में आईं दिल में ठहरीं दिल में पैकाँ हो गईं

मस्जिद की सर-ए-राह बिना डाल ज़ाहिद

इस रोक से होने के नहीं कू-ए-बुताँ बंद

कभी दिल की कली खिली ही नहीं

ए'तिबार-ए-बहार कौन करे

जो लड़खड़ाए क़दम मय-कदे में मस्तों के

बग़ल में हज़रत-ए-नासेह थे बढ़ के थाम लिया

आप का इख़्तियार है सब पर

आप पर इख़्तियार किस का है

मिलो मिलो मिलो इख़्तियार है तुम को

इस आरज़ू के सिवा और आरज़ू क्या है

जिनाँ की कहते हैं यूँ मुझ से हज़रत-ए-वाइज़

कि जैसे देखी हो यार की गली मैं ने

आइना सामने अब आठ पहर रहता है

कहीं ऐसा हो ये मद्द-ए-मुक़ाबिल हो जाए

कब वो आएँगे इलाही मिरे मेहमाँ हो कर

कौन दिन कौन बरस कौन महीना होगा

कहाँ क़िस्मत में इस की फूल होना

वही दिल की कली है और हम हैं

मोहब्बत में वफ़ा की हद जफ़ा की इंतिहा कैसी

'मुबारक' फिर कहना ये सितम कोई सहे कब तक

कली रह गई ना-शगुफ़्ता हमारी

गिला रह गया ये नसीम-ए-चमन से

असर हो या हो वाइज़ बयाँ में

मगर चलती तो है तेरी ज़बाँ ख़ूब

ख़बर इतनी तो है झोंके तिरे बाद-ए-ख़िज़ाँ पहुँचे

ख़ुदा मालूम तिनके आशियाने के कहाँ पहुँचे

जो दिल-नशीं हो किसी के तो इस का क्या कहना

जगह नसीब से मिलती है दिल के गोशों में

ये तसर्रुफ़ है 'मुबारक' दाग़ का

क्या से क्या उर्दू ज़बाँ होती गई

उधर चुटकी वो दिल में ले रहे हैं

इधर इक गुदगुदी सी हो रही है

अपनी सी करो तुम भी अपनी सी करें हम भी

कुछ तुम ने भी ठानी है कुछ हम ने भी ठानी है

दामन अश्कों से तर करें क्यूँ-कर

राज़ को मुश्तहर करें क्यूँ-कर

निकलना आरज़ू का दिल से मालूम

हुजूम-ए-यास में रस्ता मिले क्या

हँसी है दिल-लगी है क़हक़हे हैं

तुम्हारी अंजुमन का पूछना क्या

बेश कम का शिकवा साक़ी से 'मुबारक' कुफ़्र था

दौर में सब के ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ पैमाना रहा

जाँ-निसारान-ए-मोहब्बत में हो अपना शुमार

इम्तिहाँ इस लिए ज़ालिम ने हमारा किया

रहने दे अपनी बंदगी ज़ाहिद

बे-मोहब्बत ख़ुदा नहीं मिलता

इस भरी महफ़िल में हम से दावर-ए-महशर पूछ

हम कहेंगे तुझ से अपनी दास्ताँ सब से अलग

हवा बाँधते हैं जो हज़रत जिनाँ की

गली में हसीनों की आए गए हैं

दिन भी है रात भी है सुब्ह भी है शाम भी है

इतने वक़्तों में कोई वक़्त-ए-मुलाक़ात भी है

इक मिरा सर कि क़दम-बोसी की हसरत इस को

इक तिरी ज़ुल्फ़ कि क़दमों से लगी रहती है

किसी से आज का वादा किसी से कल का वादा है

ज़माने को लगा रक्खा है इस उम्मीद-वारी में

कब उन आँखों का सामना हुआ

तीर जिन का कभी ख़ता हुआ

क़िबला-ओ-काबा ये तो पीने पिलाने के हैं दिन

आप क्या हल्क़ के दरबान बने बैठे हैं

जो क़यामत का नहीं दिन वो मिरा दिन कैसा

जो तड़प कर कटी हो वो मिरी रात नहीं

क़दम क़दम पे ये कहती हुई बहार आई

कि राह बंद थी जंगल की खोल दी मैं ने

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