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राज़ इलाहाबादी

1929 - 1996 | इलाहाबाद, भारत

राज़ इलाहाबादी

ग़ज़ल 7

अशआर 4

आशियाँ जल गया गुल्सिताँ लुट गया हम क़फ़स से निकल कर किधर जाएँगे

इतने मानूस सय्याद से हो गए अब रिहाई मिलेगी तो मर जाएँगे

अश्क-ए-ग़म ले के आख़िर किधर जाएँ हम आँसुओं की यहाँ कोई क़ीमत नहीं

आप ही अपना दामन बढ़ा दीजिए वर्ना मोती ज़मीं पर बिखर जाएँगे

ये मेरी तमन्ना है प्यासों के मैं काम आऊँ

यारब मिरी मिट्टी को पैमाना बना देना

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उम्र जूँ जूँ बढ़ती है दिल जवान होता है

'राज़' ये हसीं ग़ज़लें इन सफ़ेद बालों में

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आशियाँ जल गया गुल्सिताँ लुट गया हम क़फ़स से निकल कर किधर जाएँगे

राज़ इलाहाबादी

आशियाँ जल गया गुल्सिताँ लुट गया हम क़फ़स से निकल कर किधर जाएँगे

हबीब वली मोहम्मद

आशियाँ जल गया, गुल्सिताँ लुट गया, हम क़फ़स से निकल कर किधर जाएँगे

हबीब वली मोहम्मद

लज़्ज़त-ए-ग़म बढ़ा दीजिए

मुन्नी बेगम

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