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सुहैल अहमद ज़ैदी

1928 - 2007 | इलाहाबाद, भारत

सुहैल अहमद ज़ैदी

ग़ज़ल 21

अशआर 8

हर सुब्ह अपने घर में उसी वक़्त जागना

आज़ाद लोग भी तो गिरफ़्तार से रहे

पेड़ ऊँचा है मगर ज़ेर-ए-ज़मीं कितना है

लब पे है नाम-ए-ख़ुदा दिल में यक़ीं कितना है

देखो तो हर इक शख़्स के हाथों में हैं पत्थर

पूछो तो कहीं शहर बनाने के लिए है

हम हार तो जाते ही कि दुश्मन के हमारे

सौ पैर थे सौ हाथ थे इक सर ही नहीं था

दो पाँव हैं जो हार के रुक जाते हैं

इक सर है जो दीवार से टकराता है

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नवाह-ए-जाँ में कहीं अबतरी सी लगती है

पेड़ ऊँचा है मगर ज़ेर-ए-ज़मीं कितना है

फ़क़ीह-ए-शहर से रिश्ता बनाए रहता हूँ

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