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ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र

1940 | फतेहपुर, भारत

ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र

ग़ज़ल 20

अशआर 25

राब्ता क्यूँ रखूँ मैं दरिया से

प्यास बुझती है मेरी सहरा से

हम लोग तो मरते रहे क़िस्तों में हमेशा

फिर भी हमें जीने का हुनर क्यूँ नहीं आया

सहरा का सफ़र था तो शजर क्यूँ नहीं आया

माँगी थीं दुआएँ तो असर क्यूँ नहीं आया

मोम के लोग कड़ी धूप में बैठे हैं

आओ अब उन के पिघलने का तमाशा देखें

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आईने ही आईने थे हर तरफ़

फिर भी अपने आप में तन्हा था मैं

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