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नज़्म
ख़्वाब जो बिखर गए
मगर लहू के दाग़ भी उभर गए ये क्या हुआ
इन्हें छुपाऊँ किस तरह नक़ाब ढूँढता हूँ मैं
आमिर उस्मानी
नज़्म
हिण्डोला
निकल के मदरसों और यूनीवर्सिटिय्यों से
ये बद-नसीब न घर के न घाट के होंगे
फ़िराक़ गोरखपुरी
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लेख
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
तंज़-ओ-मज़ाह
पतरस बुख़ारी
ग़ज़ल
मर्द-ए-दरवेश का सरमाया है आज़ादी ओ मर्ग
है किसी और की ख़ातिर ये निसाब-ए-ज़र-ओ-सीम
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
कार्ल मार्क्स
मार्क्स ने साइंस ओ इंसाँ को किया है हम-कनार
ज़ेहन को बख़्शा शुऊर-ए-ज़िंदगानी का निसाब