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मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

1806 - 1869 | दिल्ली, भारत

मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

ग़ज़ल 25

अशआर 15

इज़हार-ए-इश्क़ उस से करना था 'शेफ़्ता'

ये क्या किया कि दोस्त को दुश्मन बना दिया

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फ़साने यूँ तो मोहब्बत के सच हैं पर कुछ कुछ

बढ़ा भी देते हैं हम ज़ेब-ए-दास्ताँ के लिए

इतनी बढ़ा पाकी-ए-दामाँ की हिकायत

दामन को ज़रा देख ज़रा बंद-ए-क़बा देख

जिस लब के ग़ैर बोसे लें उस लब से 'शेफ़्ता'

कम्बख़्त गालियाँ भी नहीं मेरे वास्ते

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हम तालिब-ए-शोहरत हैं हमें नंग से क्या काम

बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम होगा

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नअत 1

 

पुस्तकें 16

चित्र शायरी 3

 

ऑडियो 9

इधर माइल कहाँ वो मह-जबीं है

इश्क़ की मेरे जो शोहरत हो गई

कहूँ मैं क्या कि क्या दर्द-ए-निहाँ है

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