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मर्सिया
हर मिस्र-ए-पर-जस्ता है फल तेशा नहीं है
याँ मग़्ज़ सुख़न का है रग-ओ-रेशा नहीं है
मिर्ज़ा सलामत अली दबीर
ग़ज़ल
इश्क़ की इक जस्त ने तय कर दिया क़िस्सा तमाम
इस ज़मीन ओ आसमाँ को बे-कराँ समझा था मैं
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
हिण्डोला
इन्ही फ़सानों में खुलते थे राज़-हा-ए-हयात
उन्हें फ़सानों में मिलती थीं ज़ीस्त की क़द्रें
फ़िराक़ गोरखपुरी
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नज़्म
ख़ुद-कुशी
और मैं कर भी चुका हूँ अपना अज़्म-ए-आख़िरी!
जी में आई है लगा दूँ एक बेबाकाना जस्त
नून मीम राशिद
नज़्म
नशात-ए-उमीद
अज़्म को जब देती है तू मेल जस्त
गुम्बद-ए-गर्दूं नज़र आता है पस्त