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ग़ज़ल
अभी मरते हैं हम जीने का ता'ना फिर न देना तुम
ये ता'ना उन को देना जिन से ऐसा हो नहीं सकता
मुज़्तर ख़ैराबादी
तंज़-ओ-मज़ाह
हाँ अह्ल-ए-तलब कौन सुने ताना-ए-ना याफ़्त जब पा न सके उसको तो आप अपने को खो आए...
फ़िराक़ गोरखपुरी
तंज़-ओ-मज़ाह
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
हर वक़्त है दुश्नाम हर इक बात में ताना
फिर उस पे भी कहता है कि मैं कुछ नहीं कहता