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नज़्म
ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर
आइंदा की फ़र्ज़ी इशरत के वादों से न कर बेताब हमें
कहता है ज़माना जिस को ख़ुशी आती है नज़र कमयाब हमें
अख़्तर शीरानी
ग़ज़ल
वारदात-ए-क़ल्ब लिक्खी हम ने फ़र्ज़ी नाम से
और हाथों-हाथ उस को ख़ुद ही ले जा कर दिया
आदिल मंसूरी
तंज़-ओ-मज़ाह
मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी
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तंज़-ओ-मज़ाह
मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी
नज़्म
यादें
जिस पर नाज़ है हम को इतना झुकी है अक्सर वही जबीं
कभी कोई सिफ़्ला है आक़ा कभी कोई अब्ला फ़र्ज़ीं
अख़्तरुल ईमान
ग़ज़ल
मज़ाक़ उड़ाते हैं लोग फ़र्ज़ी कहानियों का
कि सीधे-सादे से उन बुज़ुर्गों का क्या बनेगा