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नज़्म
शिकवा
रहमतें हैं तिरी अग़्यार के काशानों पर
बर्क़ गिरती है तो बेचारे मुसलमानों पर
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
बस एक मोती सी छब दिखा कर बस एक मीठी सी धुन सुना कर
सितारा-ए-शाम बन के आया ब-रंग-ए-ख़्वाब-ए-सहर गया वो
नासिर काज़मी
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विषय
बर्ग
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ग़ज़ल
ऐ शजर-ए-हयात-ए-शौक़ ऐसी ख़िज़ाँ-रसीदगी
पोशिश-ए-बर्ग-ओ-गुल तो क्या जिस्म पे छाल भी नहीं
जौन एलिया
ग़ज़ल
उबैदुल्लाह अलीम
ग़ज़ल
बर्ग-ए-गुल पर रख गई शबनम का मोती बाद-ए-सुब्ह
और चमकाती है उस मोती को सूरज की किरन
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ख़िज़्र-ए-राह
गूँजती है जब फ़ज़ा-ए-दश्त में बाँग-ए-रहील
रेत के टीले पे वो आहू का बे-परवा ख़िराम
अल्लामा इक़बाल
मर्सिया
बरसों से है आज़ार-ए-बर्स में मह-ए-ताबाँ
कब से यरक़ाँ महर को है और नहीं दरमाँ