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नज़्म
शिकवा
रहमतें हैं तिरी अग़्यार के काशानों पर
बर्क़ गिरती है तो बेचारे मुसलमानों पर
अल्लामा इक़बाल
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ग़ज़ल
ऐ बर्क़-ए-तजल्ली कौंध ज़रा क्या मुझ को भी मूसा समझा है
मैं तूर नहीं जो जल जाऊँ जो चाहे मुक़ाबिल आ जाए
बहज़ाद लखनवी
नज़्म
मुहासरा
वो बर्क़ लहर बुझा दी गई है जिस की तपिश
वजूद-ए-ख़ाक में आतिश-फ़िशाँ जगाती थी
अहमद फ़राज़
शेर
शह-ज़ोर अपने ज़ोर में गिरता है मिस्ल-ए-बर्क़
वो तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले