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ग़ज़ल
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
बुलबुल को बाग़बाँ से न सय्याद से गिला
क़िस्मत में क़ैद लिक्खी थी फ़स्ल-ए-बहार में
बहादुर शाह ज़फ़र
नज़्म
मैं पल दो पल का शा'इर हूँ
हर नस्ल इक फ़स्ल है धरती की आज उगती है कल कटती है
जीवन वो महँगी मदिरा है जो क़तरा क़तरा बटती है
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
कब महकेगी फ़स्ल-ए-गुल कब बहकेगा मय-ख़ाना
कब सुब्ह-ए-सुख़न होगी कब शाम-ए-नज़र होगी
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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फ़ासला
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ग़ज़ल
कहीं तार-ए-दामन-ए-गुल मिले तो ये मान लें कि चमन खिले
कि निशान फ़स्ल-ए-बहार का सर-ए-शाख़-सार कोई तो हो
अहमद फ़राज़
नज़्म
ला-इलाहा-इल्लल्लाह
ये नग़्मा फ़स्ल-ए-गुल-ओ-लाला का नहीं पाबंद
बहार हो कि ख़िज़ाँ ला-इलाहा-इल्लल्लाह